Sunday, December 21, 2008

परमात्मा की इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है

ज+र्रे-ज+र्रे में परमात्मा। ज+र्रा-ज+र्रा भी परमात्मा। "रूह-ए-रब, रब-ए-खु+दा''। उस परमात्मा ने संकल्प किया- इच्छा की, वह इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है - इसमें विकार हुआ- वह विकार ही सृष्टि है। परमात्मा के, सतोगुणी अहंकार से मन, दस इंद्रियों के देवता, रजोगुणी अहंकार से पाँच प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रिय तथा ५ कर्मेन्द्रिय- तामसी अहंकार से पंच तन्मात्रा फिर उनसे पंचमहाभूत। एक-एक से दस बने और उत्तरोत्तर गुणात्मक रूप से बढ़ते गए। उस अदृष्ट ने इन्हें जोड़ दिया और पचास करोड़ योजन का एक अण्डा बन गया। उसमें ब्रह्म ने प्रवेश किया। इसलिए इसे कहते हैं ब्रह्माण्ड। विस्तार वाला था इसलिए इसे वृहद् अण्ड भी कहते हैं। खगोल शास्त्री धरती का प्रमाण पचास करोड़ योजन का बताते हैं। विज्ञान तो ये आज का है। ये तो आज गणना कर रहे हैं। श्रीमद् भागवत तो इक्यावन सौ वर्ष पुरानी है। दुनियाँ ने जो कुछ भी लिखा है। हमारे वेदों और पुराणों से सीखा है। मुहर अपनी-अपनी लगाई है। चाहे न्यूटन हो, चाहे डाल्टन हो, चाहे आइस्टीन हो, ईसा हो, चाहे मूसा हो, चाहे कोई और हो। सबने यहीं से सब कुछ सीखा पर उस पर अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए लेबल अपने-अपने लगा दिए।

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