Thursday, September 10, 2009

ये तो उसकी सुरुचि है।

बहुत से साधु बढ़िया कपड़े नहीं पहनते कि कोई उनको साधु नहीं मानेगा। अरे खूब साफ सुथरे, बढ़िया पहनो। बस कोई स्वाद मत रखो। बढ़िया है तो ठीक है, घटिया है तो ठीक है। लेकिन ये क्या कि बढ़िया मिल रहा है, फिर भी नहीं पहन रहे कि दुनियाँ साधु नहीं कहेगी, भगत जी नहीं मानेगी, कहेगी भोगी है ये तो। तो डर के मारे बढ़िया कपड़े पहनना छोड़ दिया। स्वाद के मारे नहीं पहना। और दूसरा कोई पहन रहा है तो कुछ कहके मुँह बना रहा है तो काहे का भगत जी है? ये तो उसकी सुरुचि है।

Thursday, August 6, 2009

लोकेष्णा में छोड़ा तो क्या छोड़ा है?

एक राजा बाबा जी हो गया। कुछ खाता पीता नहीं, नंगा घूमता, किसी से नहीं बोलता, सोने के लिए बिस्तर भी नहीं बिछाता। तकलीफ हो गई, सूख कर काँटा सा शरीर हो गया पाँव में घाव हो गए, खराब शकल हो गई। महान सन्त का शिष्य था। उन्होंने कहा ये तू क्या कर रहा है? अति पर जी रहा है। पहले राजा था तो भोगों की अति करी कि जिसके पास जितने भोग होंगे वो उतना ही बड़ा राजा है। कौन बड़ा गृहस्थ है? जिसके पास भोग है। भोगी ही बड़ा गृहस्थ है। जिसके पास भोग कम है, वह गरीब है। बिल्कुल दरिद्र है जिसके पास भोग है ही नहीं। अति में तब भी जी रहे थे अब भी अति में जी रहे हो। तब भी अहंकार के लिए जी रहे थे, अब भी अहंकार के लिए जी रहे हो। जूते नहीं पहनेंगे कि लोग कहें"अरे वो भगत जी जो जूते भी नहीं पहनते।'' ये सुरुचि है- भीतर छुपी हुई वासना। जूते क्यूँ नहीं पहनते? जूते तुम्हारे धरम को खा जाऐंगे? जूते पहनने से तुम्हारा भजन खराब होता है क्या? अहंकार के लिए जूते छोड़ दिए। खाना छोड़ दिया। क्यों? कि लोग कहें वो वाले बाबा जो अन्न नहीं खाते कूटू ही खाते हैं। ये अहंकार ही है- रुचि है ये। लोकेष्णा में छोड़ा तो क्या छोड़ा है? न सुनीति है, न ध्रुव है।

Sunday, July 26, 2009

मन के पीछे हम अनीति को पकड़ लेते हैं।

जो मन के अधीन होते हैं, वे धर्म को और नीति को त्याग देते हैं, तो मन के पीछे हम अनीति को पकड़ लेते हैं। मात्र राजा और रानी की ही नहीं वरन यह धर्म की कथा है। भागवत, सुन्दर नीति की कथा, व्यास जी की पवित्र कथा, शुकदेवजी जैसे पवित्र मुनि की कही कथा जिसे परीक्षित जैसे जिज्ञासु ने सुना- साधारण नहीं है ये। बहुत समझने की कथा है। मन के अधीन होने की स्थिति बहुत खतरनाक होती है। तुम सोचते हो मैं ये कर रहा हूँ, पर नहीं, तुम कुछ और ही सोच रहे होते हो। तुम सोचते हो कि मैं खाना खा रहा हूँ, पर ये मन तो कुछ और ही चिंता में लगा हुआ है। तुम सोचते हो कि तुम दुनियाँ को छोड़ आए, नहीं छोड़ आए, दुनियाँ को ऊपर से छोड़ा पर दुनियाँ की चाहत तो तुम्हारे साथ है। स्त्री, पुत्र, घर-बार सब छोड़ दिया पर यहाँ पर भी स्वाद पीछा नहीं छोड़ता। स्वाद- सुरुचि और उत्तम- बढ़िया।

Wednesday, July 22, 2009

सब मन की कर रहे हैं

तुम दुनियाँ भर के कष्ट झेलकर पैसा कमा कर लाते हो। दुनियाँ भर की आफत उठाकर के आते हो कहीं जेब कट गई, कहीं पुलिस ने परेशान किया। तुमने सोचा कि घर जाऐंगे तो घरवाली के पास बैठेंगे, थोड़ी शान्ति आएगी और घरवाली तो मुँह फुला करके बैठी है। इन्स्पक्ैटर और अफसर को तो पैसे देकर के छूट आए, इस घरवाली से कैसे छूटोगे बेटा। बीबी को कैसे भी मना लिया अब मम्मी मुँह फुलाकर बैठी, बेटा-बेटी सब अपने मन की पूरी कराने को बैठे हैं।

Sunday, July 12, 2009

बस धर्म की नीति पर चलो

तो सुनीति ने समझाया ध्रुव को, कि बेटा तुम्हें इस संसार में ही रहना है, तो तुम्हें सुन्दर नीति की सुनीति की जरूरत है। नीति की तो जरूरत है पर कठोर नीति नहीं कि कोई तुम्हारे काम में ही गड़बड़ी फैला जाए। दुनियाँ तुम्हें ठग रही है, लूट रही है तो तुम दुनियाँ से अपनी बात को छुपा करके बस धर्म की नीति पर चलो। अगर भगत जी बने तो एक मिनट नहीं चलेगी। आज लोगों ने धर्म को छोड़ दिया, नीति को छोड़ दिया, सुनीति को छोड़ दिया है, अपने मन को सुरुचि के साथ बेठी है दुनियाँ।

Wednesday, July 8, 2009

यहाँ क्या करना है ये ध्यान है तुम्हें?

एक महात्मा मेरे साथ पिछले २०-२५ सालों से रह रहे हैं और जब भी बात करते हैं तो अपनी बात। अब कह रहे हैं कि अरे हमें तो किराया ही नहीं दे गए। बहुत चुप रह रहे हैं। कह रहे हैं कि मैं बहुत सुधर गया हूँ। पर बात करने आए तो किराए की। तुम्हें यहाँ क्या करना है ये ध्यान है तुम्हें? या किराया का ही ध्यान है ये बताओ? अब तुम्हें क्या बात करनी है ये तुम्हें पता है? अरे साहब हमें रोटी घर की नहीं मिली। रोटी तो मिली? पेट तो भरा? "रोटी तो मिली, लेकिन...........'' ये लेकिन- लेकिन क्या है? यही सुरुचि है। गुरु बात करेंगे सुरुचि को लेकर। गुरु भी चेले को धर्म की बात नहीं बताऐंगे, मन की बात करेंगे। सुनीति की बात नहीं बताऐंगे मन की बात करेंगे। सुरुचि की बात करेंगे। अपनी-अपनी दुकान लेकर के बैठे हैं। खाली हाथ हैं और खाली जेब है और झोली बहुत लम्बी है।

Sunday, June 28, 2009

आदमी मन की बात कहता मिलेगा

हर कोई आदमी मन की बात कहता मिलेगा, धर्म की बात कहने वाला नहीं मिलेगा। तुम्हारी बेटी आएगी तो तुमसे बेटी जैसी बात नहीं करेगी, अपनी समस्याओं की बात करेगी। वो भी अपनी सुरुचि को लटका कर घूम रही है। बेटे की बहू आएगी तो वो भी अपने मन की बात करेगी। चेला अपनी समस्याओं की बात करता है, ये नहीं कि चेले को क्या करना चाहिए।

Monday, June 22, 2009

मन से असंग होने का नाम है भजन

उत्तम की माँ है सुरुचि। उत्तम माने बढिया और सुरुचि माने मनमानी। हर आदमी मनमानी को लेकर के बैठा है। बड़े-बडे+ मण्डलेश्वर और महामण्डलेश्वर भी मन के स्वाद को लेकर बैठे रहते हैं। नीति और धर्म पर चलने वाला तो करोड़ों में कोई एक-आध होता है। समझते ही नहीं हैं लोग। अपने से फुर्सत ही नहीं है। मन का जो स्वाद है उसी में ही लगे रहते हैं, जबकि मन से असंग होने का, मन का भर्जन होने का नाम ही भजन है।

मन से असंग होने का नाम है भजन

उत्तम की माँ है सुरुचि। उत्तम माने बढिया और सुरुचि माने मनमानी। हर आदमी मनमानी को लेकर के बैठा है। बड़े-बडे+ मण्डलेश्वर और महामण्डलेश्वर भी मन के स्वाद को लेकर बैठे रहते हैं। नीति और धर्म पर चलने वाला तो करोड़ों में कोई एक-आध होता है। समझते ही नहीं हैं लोग। अपने से फुर्सत ही नहीं है। मन का जो स्वाद है उसी में ही लगे रहते हैं, जबकि मन से असंग होने का, मन का भर्जन होने का नाम ही भजन है।

Friday, May 15, 2009

पापकर्मों का ना मैं चिन्तन करता हूं, ना चर्चा करता हूँ।

इसलिए देवता शंकर जी की शरण में गए और हाथ जोड़कर वन्दन कर, निवेदन किया। शंकर जी बोले, "देखो, भगवान की माया से मोहित होकर दक्ष जैसे नासमझों के पापकर्मों का ना मैं चिन्तन करता हूं, ना चर्चा करता हूँ। हाँ, सावधान करने के लिए मैंने इस थोड़े से दण्ड का प्रावधान किया है। कोई बदला नहीं लिया, वैर या द्वेष नहीं किया। जैसे माता-पिता बच्चे को मारते नहीं हैं, समझाने के लिए डाँट देते हैं, ऐसे ही साधु-महात्मा भी किसी को डाँट रहे हों, चाहे पीट रहे हों, उनके पाँव पड़े। माँ अगर झगड़ रही हो तो भी पांव पकड़े, बराबरी ना करें, जबान ना पकड़े।

Wednesday, May 6, 2009

अहंकार और घमण्ड से कुछ नहीं मिलता।

दक्ष प्रजापति आया, अहंकार आया तो गड़बड़ी होगी। इसलिए इस अंहकार को मारना सीख लो। बहुत गहरी कथा है। हम अंहकार को राजा बना लेते हैं और जैसा अहंकार कहता है वैसा आचरण करने लगते हैं। अरे ऐसा नहीं करेंगे तो हमें कौन पूछेगा, ऐसा करेंगे तो गाँव में कैसे रहेंगे, बच्चे कैसे पलेंगे, कैसे बढेंगे, कैसे पढेंगे। ये उल्टी-सीधी बातें आती हैं अहंकार में। अरे, समझदारी अलग च+ीज होती है। इसलिए देवता वो जो समझदारी से चले। भैया, अहंकार और घमण्ड से कुछ नहीं मिलता। जहां कहीं भी झगड़ा है वहां अहंकार है, समझदारी नहीं। समझदारी की बात होगी, झगड़ा होगा ही नहीं।

Friday, May 1, 2009

शिव कहते हैं ज्ञान को।

पवित्र लोग ही चाहते हैं कि कथा हो, सत्संग हो, हवन हो, दान-पुण्य हो, कीर्तन हो। इन कार्यों को करवाने की जो कहे, वह देवता है। गन्दे-गन्दे काम करने को जो कहे, वही असुर है। पर पवित्र काम शिव के बिना नहीं होगा। शिव कहते हैं ज्ञान को। बिना ज्ञान व समझ के पवित्र काम नहीं होगा। देवता अगर ज्ञान में चलते हैं तो मनोरथ सुफल होते हैं और अहंकार में चलते हैं तो सब गड़बड़ी होती है। इसलिए कभी अकड़ में काम नहीं करना चाहिए। हमेशा समझदारी से काम करें।

Saturday, April 25, 2009

यज्ञ करना देव कार्य है।

जब यज्ञ विध्वंस हो गया तो यज्ञ नायक एकत्रित हुए। रिषि-मुनि, देव-गण आदि एकत्रित हुए। कहने लगे कि यज्ञ तो सबके भले की चीज है। यज्ञ तो सम्पन्न होना चाहिए। परन्तु यज्ञ सम्पन्न हो कैसे? जब तक शंकर जी रुष्ट हैं, यज्ञ तो हो ही नहीं सकता है। वह देव कौन है जो इसमें मदद करे। यज्ञ करना देव कार्य है। इसमें जो सहयोग और सेवा है वह देव कार्य है। ये जो सब सुनने के लिए आए हैं, देव कार्य कर रहे हैं। इतनी इतनी दूर से परेशानी उठाकर कथा सुनने आप लोग आए हैं, यह भी देव कार्य है, पवित्र लोगों का कार्य है।

Wednesday, April 22, 2009

सेवा, शुद्धता व समर्पण हो, यही सबसे बड़ा तप है

दक्ष प्रजापति - अहंकार। यज्ञ होता है - पवित्र कर्म, अहंकार होता है- गंदा कर्म। अहंकार में आदमी प्रेम भी करेगा तो पवित्र नहीं होगा, गंदा संदा होगा। तो यज्ञ में कोई गलत काम नहीं हो, अहंकार नहीं हो, नहीं तो सब गड़बड़ होगा। अहंकार जहां कहीं भी होगा गड़बड़ ही होगी। यज्ञ में तो सेवा, शुद्धता व समर्पण हो, यही सबसे बड़ा तप है। वीरभद्र दक्ष प्रजापति के यज्ञस्थल पर पहुँच गए। वीरों में श्रेष्ठ वीर वही है जो अपने अहंकार का शीश काट दे, उसे गिरा दे। वही वीर है जिसने अपने अहंकार को जीत लिया, उसे गिरा दिया। वह सबसे कमजोर होता है जो अहंकारी होता है। अहंकारी जरा सी बात में चिढ़ जाता है, तिलमिला जाता है, सहन नहीं कर पाता। इसलिए गम्भीर होना चाहिए। गम्भीर आदमी में ताकत होती है। अहंकारी कमजोर होता है। वीरभद्र ने वहाँ जाकर, भगवान शिव के अपमान में, जिस जिस आदमी ने जिन जिन अंगों का इस्तेमाल किया था, उनके उन उन अंगों को तोड़ दिया। जिन्होंने दाँत चमकाए थे, उनके दाँत तोड़ दिए। जिन्होंने दाढ़ी मूंछ पर हाथ फेरा था, उनकी दाढ़ी नोंच ली, आँखें चमकाई थीं तो आँखें फोड़ दीं। जिन्होंने बाँहें फड़काई थीं तो उनकी भुजाएं उखाड़ दीं। दक्ष प्रजापति के सिर को काटकर यज्ञ में भस्म कर दिया। अहंकार पूर्वक जीवन रूपी यज्ञ करोगे तो जीवन इसी प्रकार नष्ट हो जाएगा।

Tuesday, April 14, 2009

वीरों में श्रेष्ठ वीरभद्र रखा .............

परीक्षित! यहाँ सतीजी का शरीर भस्म हो गया। रुद्रगणों ने जब यज्ञ में गड़बड़ी की तो भृगु ने उनको वहाँ से खदेड़ दिया। चार माह बाद नारद जी के द्वारा शिवजी को यह सब पता चला। अपनी पत्नी सती के भस्म हो जाने की खबर पर उनको बहुत बुरा लगा। उन्होंने अपनी जटा के एक बाल को जमीन पर पटक कर वीरभद्र को उत्पन्न किया। त्रिनेत्र धारी उस वीर के हजारों भुजाएं थीं, जो हजारों अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित थीं। शंकरजी की परिकृमा कर उसने झुककर शिव को नमन किया और आज्ञा माँगी। शंकर जी ने उसका नाम वीरों में श्रेष्ठ वीरभद्र रखा और कहा कि, "देखो हमारी प्रिया सती, दक्ष प्रजापति के द्वारा हमारे अपमान के कारण यज्ञ में ही भस्म हो गईं हैं। इसलिए इस दुष्ट यज्ञ करने वाले दक्ष प्रजापति के सिर को कलम कर दो, जो कोई भी उसका पक्ष ले उसका भी रक्तपात करदो।''

Sunday, April 12, 2009

सड़ा-गला, बासी, दुर्गधयुक्त, अपवित्र (संदूषित)भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है।

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख, प्रीति बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले, मन को प्रिय लगने वाले भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वे, खट्टे, लवण युक्त, अति गर्म, तीक्ष्ण रूखे, दाहकारक, भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं, जो दु:ख चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले हैं। अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त बासी, उच्छिष्ट, अपवित्र, भोजन तामस पुरुष को प्रिय होते हैं।)स्पष्टत: 'सात्त्विक पुरुष' को प्रिय लगने वाले भोजन में उन सभी भोज्य पदार्थों की गणना की गयी है जो मनुष्य को दीर्घायु, बुद्धि, आरोग्य व उत्साह प्रदान करते हैं। जिन्हें रसयुक्त, चिकने (दुग्ध-घृतादि)भोजन की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यहां इसका भी स्पष्ट उल्लेख है कि राजसी आहार में कड़वे, तीखे, चटपटे, भोज्य-पदार्थ आते हैं जो नाना प्रकार के रोगों, दुखों व भय को आंत्रण देने वाले हैं। 'तामसिक आहार' के अंतर्गत उन सभी त्याज्य भोज्य पदार्थ का वर्णन है जो निश्चित रूप से शरीर-हानि करने वाले हैं। सड़ा-गला, बासी, दुर्गधयुक्त, अपवित्र (संदूषित)भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है।

Saturday, April 11, 2009

हज के फ़राएन

हज एक ऐसी पूजा है, जिसमें शारीरिक क्षमता व आर्थिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ये दोनों जिस किसी मुसलमान के पास हो, उसके लिए हज करना अनिवार्य है। कोशों में हज का अर्थ "किसी बड़े मक़सद का इरादा करना है।'' जिसके अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण कार्य महत्वपूर्ण समय में किए जाने होते हैं। उम्रभर में एक बार हर मुसलमान (मर्द हो या औरत ) को हज करना अनिवार्य है, पर इसके लिए भी कुछ नियम हैं कि किन लोगों पर हज फ़र्ज है- जो लोग ख़ुदा को खुश रखना चाहते हैं और जो हज के स्थान तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं। एक मुसलमान का बालिग़, आक़िल, आजाद होना और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना हज की अनिवार्य शर्तें हैं। अगर कोई शख्स अपाहिज या फालिज है या इतनी उम्र हो चुकी है कि (जईफी) बुढ़ापे के कारण सवारी पर बैठ नहीं सकता, ऐसे लोगों पर ये भी फजर् नहीं है कि अपने बदले किसी अन्य से हज करने के लिए कहें और स्वयं तो उन पर क़र्ज़ है ही नहीं। यदि कोई अन्धा है पर सवारी अर्थात्‌ रुपया ख़र्च करने की क्षमता है, परन्तु उसे कोई साथ नहीं मिल पाता तो उस पर न तो हज की अनिवार्यता है, न अपने बदले किसी से हज करवाना। यदि महिला हज कर रही है तो उसके साथ उसके पति का होना या किसी महरम (वो शख्स जिससे निकाह होने वाला है, जो कि आक़िल (अक्ल वाला) बालिग़ होना अनिवार्य है। ) मनुष्य को हज पर जाने से पहले अपने कर्जों को चुका दिया जाना चाहिए, गुनाहों से तौबा की जाए, नीयत में मुहब्बत हो और अत्याचारों से दूर रहता हो, जिससे लड़ाई झगड़ा हो, उससे सफ़ाई कर ले, जो इबादतें रह गई हैं, उन्हें पूरा कर ले। ख़ुद को नुमाइश, अहंकार से दूर रखें, हलाल कमाई हो। किसी नेक आदमी को हमसफ़र बनाए ताकि जहाँ वह भटके, वह बताता रहे कि सही क्या है? इस्लाम के फ़र्ज़ नमाज , रोजा और जकात की भांति 'हज' भी अत्यन्त महत्वपूर्ण फ़र्ज़ है।

प्रस्तुति : डा- शगुफ्ता नियाज़

http://hindivangmaya.blogspot.com

Monday, April 6, 2009

इज्जत चाहिए तो अपने घर और घरवाले का कहीं अपमान नहीं करना चाहिए

यहाँ पर आईं तो उनको कोई सम्मान नहीं मिला। अपने पति का सम्मान न करके, घर का सम्मान न करे, ऐसी स्त्री को कहीं सम्मान नहीं मिलता। इसलिए, अगर इज्जत चाहिए तो अपने घर और घरवाले का कहीं अपमान नहीं करना चाहिए। यज्ञ स्थल पर भी सती जी को कोई सम्मान नहीं मिला। वहां साधु सन्यासियों के लिए कोई स्थान था ही नहीं। नेताजी के यहां तो बस नोट वाले और वोट वाले को ही सम्मान मिलता है। सतीजी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। अपने पिता और यज्ञ करने वालों को बुरा भला कहकर उसी यज्ञ कुण्ड में बैठकर योगाभ्यास के द्वारा शिवचिन्तन करते हुए अपने शरीर को भस्म कर दिया। शंकर का ध्यान करने से अगले जन्म में हिमालय की पुत्री पार्वती बनीं। पाँच वर्ष की अवस्था में नारदजी से ज्ञान लेकर, तप करके शिव प्रिया बनीं। पार्वती कहते हैं, स्थिर बुद्धि पवित्र बुद्धि भरोसे की बुद्धि सती की बुद्धि चंचल थी। पार्वती कहते हैं टिकाऊ बुद्धि को। जो आदमी अलग अलग काम करते हैं, जगह जगह दाव लगाते हैं, वे सुखी नहीं रह पाते। कुछ लोग होते हैं जो यहां बैठे, वहाँ बैठे। इधर की उधर कही और उधर की इधर। वो चुगलखोर होते हैं। ये कहीं न सुख पाते हैं, न सम्मान पाते हैं। सबकी निन्दा जो कोइ करहि....

Thursday, April 2, 2009

नेता की बेटी किसी घर की बहू बने तो मुश्किल है।

सुलभा भगवान के लिए केले ले आईं। उन केलों को छीलकर कन्हैंया को देने लगीं। भावातिरेक में उन्हें होश ही नहीं रहा कि वे कन्हैया को केले के छिलके देती जातीं और गूदे को फेंकती जातीं। और गोविन्द...... बड़े चाव से उन छिलकों को खाए जा रहे थे। गोविन्द कुछ नहीं बोले, क्योंकि वहाँ शरीर नहीं था, होश नहीं था, बस भाव ही भाव था। गोविन्द नहीं देखते, कि उन्हे भक्त क्या दे रहा है, वह तो भाव देखते हैं।
गोविन्द मेरौ है, गोपाल मेरौ है....... श्री बांके बिहारी नन्द लाल मेरौ है॥
तो शंकर जी सती से कह रहे हैं, कि वहाँ पर (दक्ष प्रजापति के घर) भाव नहीं है। सती जी तो नेताजी की बेटी हैं। वो किसी की सुनती ही नहीं हैं। नेता जी किसी की नहीं सुनते और उनके बीबी बच्चे भी किसी की नहीं सुनते। अक्सर उनके भी दिमाग खराब हो जाते हैं। नेता की बेटी किसी घर की बहू बने तो मुश्किल है। ब्याह तो करेगी, मगर नेतागिरी करेगी, सेवा नहीं करेगी। पत्नी बनकर रहना उसके लिए मुश्किल है। पति को बंदी बनाना उसकी चौइस होती है। सती जी ने भी पति की बात नहीं मानी। तुनक करके चली गईं दक्ष प्रजापति के घर, उनके यज्ञ में। शंकर जी ने उनके साथ नंदी और रुद्र दोनों को भर भेज दिया।

Wednesday, April 1, 2009

वो उस शरीर में थीं ही नहीं।-----

उधर भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के भोजन को लात मार दी और चल पड़े विदुर चाचा के घर की ओर। दरवाजे के बाहर खड़े होकर दरवाजा खटखटाया। प्रभु जिस पर कृपा करते हैं ऐसे ही हौले से दरवाजा खटखटाते हैं। खट खट की आवाज से दरवाजा न खुला, तो जोर जोर से चिल्लाने लगे। चाची! चाची! दरवाजा खोलो, बड़ी जोर की भूख लगी है। विदुर की भार्या के कानों में ज्यों ही मोहन की आवाज पड़ी, वह सुध बुध खो बैठीं। होश नहीं रहा, गोविन्द की पुकार सुनकर। जल्दी जल्दी भागती हुई आईं और दरवाजा खोल दिया। उन्हें होश ही नहीं रहा कि वह भावावेश में अपने कपड़े पहनना ही भूल गईं । कपड़े तो तन पर हैं, और जब गोविन्द की पुकार हो, उनसे सामना हो, तो तन की ही सुधि नहीं तो तन के वसन की क्या? कन्हैया ने देखा कि चाची के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है, तो अपना पीताम्बर उनके ऊपर डाल दिया। पर चाची को तो उस समय होश ही नहीं था अपने शरीर का। वो उस शरीर में थीं ही नहीं। वहां तो बस भगवान का ध्यान था, सेवा का भाव, भक्ति का भाव, भावना पर ध्यान था - मेरे गोविन्द! मेरे प्रभु! जैसे जब कोई नदी सागर से मिलती है तो बेहिसाब गिरती है, वैसे ही जब कोई नम्र होता है तो बेहिसाब गिर जाता है। हाथ पकड़ लिया कन्हैया ने, और आसन पर बिठा दिया।

Saturday, March 28, 2009

विदुर के घर कान्हा

विदुर जी घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी सुलभा थीं। उन्होंने सुना कि भगवान श्री कृष्ण आज दुर्योधन को समझाने धृतराष्ट के पास आ रहे हैं। इसी रास्ते से लौटेंगे। तो सोच रही थीं कि जब भगवान इधर से गुजरेंगे तो अपनी झोंपड़ी से ही उनके दर्शन कर लूंगी। सुलभा सोच रही थी कि अब कृष्ण बैठे होंगे, दुर्योधन व धृतराष्ट के पास। साथ में कर्ण होगा, शकुनि भी होगा। चित्र बन रहे थे कल्पना में। उनकी काली काली घुंघराली लटें, उनके चौड़े मस्तक पर बिखरे हुए उनके बाल, सुन्दर बड़ी बड़++ी आंखें, सुभग नासिका, ये सब, उनका चेहरा याद आ रहा था। सोचा कि कहीं जल्दी में निकल न जाएं। तो जल्दी से स्नान कर लूं। फिर खयाल आया कि अगर वो इधर आ गए, तो उन्हें खिलाने को क्या है। देखा, घर में केले रखे थे। सोचा, चलो कन्हैंया आएंगे तो उन्हें केले दे दूंगी। फिर किबाड़ बन्द कर जल्दी जल्दी स्नान करने चली गईं। सोचा घर आए कन्हैंया, तो खाने का इन्तजाम तो है, पर दर्शन करने के लिए स्नान जरूरी है। पवित्र होना जरूरी है। तो वस्त्र उतार कर घर के भीतर स्नान करने लगीं।

Saturday, March 21, 2009

'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है

सब इंद्रियों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर कर, प्राणों को सहस्रार में पहुंचाकर ऊंकार का उच्चारण ही ध्यान की सम्यक विधि है। प्रणव शब्द का अनवरत उच्चारण व मन का उस शब्द में तादात्म्यीकरण मनुष्य को अद्भुत शांति व सुख के साम्राज्य में ले जा सकता है। आज यह तो सर्वविदित ही है कि 'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है, उसकी क्षमताओं का पुनर्नवीनीकरण होता है और कार्यक्षमता का वर्धन होता है। गीता हमें मानवता का पाइ भी पढ़ाती है। आल समूचे विश्व में जाति व सम्प्रदायगत वैमनस्य का जहर व्याप्त है। सर्वत्र घृणा, अहंकार, नफरत, स्वार्थपरता का तांडव है ऐसे में 'गीता' का यह उद्धोष मानव-मन को सचेत कर देता है -

विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गविहस्तिनि।

शुचि चैव स्वपाके च पंडिता: समदर्शिनि:॥

प्रबोधित, प्रचेतस मानस से सबसे पहली अपेक्षा तो यह की जाती है कि वह विनम्र हो, अहंकारी नहीं। साथ ही वह ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते, चांडाल - आशय यह कि सर्वदा सब प्राणियों में समान भाव रखें। जिसे कबीर 'कीरी कुंजर में रह्या समाई' कहकर, तुलसी 'सीय राम मैं सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी' कहकर व बाद के कवि 'हर देश में तू, हर वेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है' कहकर युग की मांग के अनुकू ल साम्प्रदायिक सद्भाव का अलख जगाने का सत्प्रयास कर रहे थे उस उदात्त भाव का निरूपण 'गीता' में बहुत पहले हो चुका था। वह तो सब प्राणियों में अपने समान भाव रखने का सदुपदेश देती है -

Wednesday, March 18, 2009

संदूषित भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं

सात्त्विक पुरुष' को प्रिय लगने वाले भोजन में उन सभी भोज्य पदार्थों की गणना की गयी है जो मनुष्य को दीर्घायु, बुद्धि, आरोग्य व उत्साह प्रदान करते हैं। जिन्हें रसयुक्त, चिकने (दुग्ध-घृतादि)भोजन की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यहां इसका भी स्पष्ट उल्लेख है कि राजसी आहार में कड़वे, तीखे, चटपटे, भोज्य-पदार्थ आते हैं जो नाना प्रकार के रोगों, दुखों व भय को आंत्रण देने वाले हैं। 'तामसिक आहार' के अंतर्गत उन सभी त्याज्य भोज्य पदार्थ का वर्णन है जो निश्चित रूप से शरीर-हानि करने वाले हैं। सड़ा-गला, बासी, दुर्गधयुक्त, अपवित्र (संदूषित)भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है।

Saturday, March 14, 2009

गीता जीवन जीने की एक कला है।

गीता जीवन जीने की एक कला है। आज के आपाधापी, उलझन व तनाव भरे जीवन में मनुष्य मात्र को एक स्वस्थ सोच, सम्यक दृष्टि और आशावादी संदेश प्रदत्त करती हुई आदि गुरु शंकराचार्य जी के 'भगवद्गीता किंचित धीता' के उद्धोषा को अक्षरश: चरितार्थ करती है। मृत्यु प्रत्येक जीवन का अनिवार्य सत्य है और जीवन की राह अत्यन्त जटिल। 'मृत्यु' के सच को बिना किसी घबराहट, अवसाद और निराशा के स्वीकार करते हुये जटिल जीवन को सरलता, निर्लिप्तता, कर्मठता, सजगता, जिजीविषा व समस्त उत्तरदायित्वों को धैर्यपूर्वक वहन करते हुये किस समर्पण व सादगी के साथ जीना है - यह कला सिखाती है गीता। गीता हमें सिखाती है - तन से, मन से, स्वस्थ, सबल व संतुलित होकर जीने का तरीका। क्या यह आज के मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता नहीं है?गीता भक्ति, ज्ञान, कर्म का अद्भुत समन्वय है। मनुष्य सद व विवेकपूर्ण चिंतन के द्वारा उत्कृष्ट कर्म करता हुआ समाज के लिए कितना उपयोगी हो सकता है - इसके सूत्र हमें 'गीता' में सहजता से मिल जाते हैं। सर्वप्रथम मैं 'स्वस्थ शरीर' पर विचार करूंगी। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार है और स्वस्थ मन ही सकारात्मक उर्जा के माध्यम से सशक्त समाज का निर्माण कर सकता है। गीता में 'शरीर संशुद्धि' के सर्वप्रमुख कारण 'आहार-नियमन' पर सूक्ष्मता से विचार हुआ है। आहार का मन पर प्रभाव असंदिग्ध है। अशुद्ध आहार 'मन' की शांति तरंगों में विक्षोभ उत्पन्न करता है।

Tuesday, March 10, 2009

अपने ही पुजापे में पूजा को भूला है।


ग्रन्थों को पढ़कर भी अभिमान में डूबा है-२

अपने ही पुजापे में पूजा को भूला है।

रुद्र, अंधेरों में क्यूँ नहीं उजियार किया?

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया।

इन तन को सजाने में....................।

बोलो- लीला विलास महाराज की जय।

हमने अपने चरित्र पर नहीं तन को सजाने पर ध्यान दिया चरित्र पर नहीं चमड़े और कपड़े पर ध्यान दिया। शास्त्रों में चरित्र संवारने की बात कही गई है उसे भूल गए। टी।वी। पर, फिल्मों में जो बात आती है वहीं ध्यान रह गई टी।वी। पर बात आती है, चमड़े और कपड़े की, दमड़ी की वही ध्यान रही बाकी चरित्र को संवारने की बात जो शास्त्रों में कही, संतों ने कही वह भूल बैठे और जीवन गँवा दिया।

Friday, March 6, 2009

बुद्धि दी ईश्वर ने, फिर भी ना सुधार किया।


इस धूल के कण-मन को, कीचड़ क्यों बनाते हो?

लहराते चमन दिल को, बीहड़ क्यों बनाते हो?

क्यों ओस में रंग भर कर तस्वीर को फाड़ दिया?

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया

इस तन को सजाने में..............................।

रंग ढंग सब बिगड़ गया, सतसंग से बिछड़ गया।-२

नर होकर नरक गया, खुद से ही झगड़ गया।

बुद्धि दी ईश्वर ने, फिर भी ना सुधार किया।

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया।

इस तन को सजाने में.....................।

Monday, March 2, 2009

इस तन को सजाने में जीवन को बिगाड़ लीया


;इस तन को सजाने में जीवन को बिगाड़ लियाद्ध-

२ तेरी मांग रहे सूनी,ऐसा श्रृंगार किया-२

इस तन को सजाने में..................................।

सावन में पपीहे ने क्या राग सुनाए हैं-२

आंधी तूफां आए बादल भी छाए हैं

एक बूंद भी पी न सका, ये क्यूँ न विचार किया।

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया

इस तन को सजाने में................................।

Friday, February 27, 2009

ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं को पुत्र रूप में प्राप्त किया।

सुन्दर और निष्कपट बु(ि तथा निश्छल कर्म। हे! परीक्षित इसी से पति पत्नी का सम्बन्ध सुन्दर बनता है। फिर उनको नौ कन्याऐं हुईं, नौ कन्याओं का विवाह उन्होंने नौ )षियों के साथ किया। इन्हीं में एक अनुसूया थीं, जो अत्रि rishi को ब्याही गईं। जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं को पुत्र रूप में प्राप्त किया। इनमें से विष्णु ने दत्तात्रेय भगवान के रूप में अवतार लिया। ब्रह्माजी चन्द्रमा नाम के rishi बने तथा शिव जी दुर्वासा नाम के )षि बने। परीक्षित, दसवें कपिल का अवतार हुआ। ब्रह्माजी ने देवहूति से कहा कि बेटी, तुम्हारे गर्भ से जो कपिल अवतार जन्म लेंगे वो सांख्य के प्रणेता होंगे तो तुम घर में रह कर ही उनसे सांख्य का उपदेश लेकर ज्ञान प्राप्त कर सकती हो। देवहूति ने उनकी बात को ध्यान में रखा। साधु की और शास्त्र की बात को ध्यान में रखने से ही आदमी ज्ञानी बनता है। लेकिन हमें शास्त्र की और संतों की बात याद नहीं रहती इसीलिए तो हम भटक गए हैं। क्यों भटक गए हैं, इसलिए भटक गए क्योंकि न तो हमने ज्ञान को महत्व दिया न शास्त्रों का अध्ययन किया और न संतों की बातों को सुनने की फुरसत है।

Wednesday, February 25, 2009

दिव्य वसन भूषण पहिराए।

पति को बढ़िया कपड़े तथा बढ़िया श्रृंगार से नहीं रिझाया जा सकता। बढ़िया कपड़े पहनना, श्रृंगार करना ये तो नाचने गाने वाली भी कर लेती हैं, पर वो रिझाने वाली नहीं होती। प्यार से और धर्म से जीत जो होती है तो मजबूत होती है, टिकाऊ होती है। बिन्दुसर में स्नान करने के बाद वहाँ दिव्य कन्याओं ने उन्हें दिव्य आभूषण तथा वस्त्र धारण करवाए। परीक्षित, दिव्य माने पवित्र आचार विचार, पवित्र आचार विचार से पत्नी बनती है। सुन्दर कीमती वस्त्र आभूषण धारण करने से नहीं। तो दिव्य का अर्थ पवित्र आचार विचार।

दिव्य वसन भूषण पहिराए।

जे नित हू तन अंगन सुहाए॥

Saturday, February 21, 2009

पति-पत्नी के हृदय में प्रेम है तो गृहस्थ है।

दोनों का विवाह हुआ। बारह वर्षों तक देवहूति ने उनकी सेवा की। उसके उपरान्त कर्दम )षि ने उनके लिए एक विमान बनाया। विमान मतलब जहाँ न ऊँच हो न नीच हो। विमान का अर्थ ये मत समझ लेना कि कोई हवाई जहाज बनाया। विमान बनाने का अर्थ- ऊँच-नीच से मुक्त होना- जहाँ समानता हो बराबरी हो। जहाँ मान-सम्मान बीच में आ जाए वहाँ पति-पत्नी का रिश्ता नहीं रह जाता। विमान माने प्यार। पति-पत्नी के हृदय में प्रेम है तो गृहस्थ है। जहाँ पति-पत्नी की अपनी-अपनी अकड़ है वहाँ गृहस्थ है ही नहीं वहाँ तो सिर्फ नाटक है नौटंकी है। तो विमान वह जहाँ कोई भी अभिमान पति को नहीं है, कोई भी अभिमान पत्नी को नहीं है। उसमें विहार करते हुए फिर उन्होंने बिन्दुसर में स्नान करने की आज्ञा दी। ऊँच नीच नहीं होनी चाहिए पति पत्नी के बीच। प्यार हो दोनों के बीच तो धर्म स्वयं ही बन जाता है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कुछ नहीं रह जाता अधर्म ही अधर्म बन जाता है। या समझिए कि प्यार होगा तो धर्म जरूर होगा या फिर यदि धर्म है तो प्यार जरूर होगा। यदि पति पत्नी के बीच कोई शक-शुबह है तो धर्म नहीं है, वहाँ पर, क्योंकि प्यार नहीं है तकरार है। वहाँ सिर्फ नाटकबाजी है। धर्म के साथ प्यार और प्यार के साथ धर्म होता है। बिन्दुसर-प्यार होगा तो धर्म होगा। प्यार ही बिन्दुसर है और धर्म ही बिन्दुसर है।

Thursday, February 19, 2009

मनुष्य का जन्म मुक्ति के लिए मिला है।


ये मैंने तुम्हें बताया। परीक्षित महाराज कहने लगे, कि कृपा कर मुझे महर्षि कर्दम के जन्म कर्म के विषय में, उनके गृहस्थ के विषय में बताइए। तो कहा कि महर्षि कर्दम पर्वत के ऊपर तपश्चर्या करते थे। भगवान के आदेश पर उन्होंने मनु की पुत्री देवहूति से विवाह किया। लेकिन उन्होंने मनु के सामने एक शर्त रखी, कि मनुष्य का जन्म मुक्ति के लिए मिला है। गृहस्थ होता है केवल वंश चलाने के लिए और वंश चलता है एक संतान से। तो जब भी एक पुत्र हो जाएगा मैं सन्यास ले लूँगा। यदि तुम्हारी पुत्री को यह मंजूर है तो मैं उससे विवाह करने को तैयार हूँ। देवहूति ने कहा मुझे भी पति चाहिए पतित नहीं चाहिए। पति वही होता है जो पत्नी को भोग से योग की तरफ ले जाए। योग से व्यक्ति का कल्याण होता है और भोग से विनाश होता है।

Monday, February 16, 2009

अच्छी माँ के दुष्ट सन्तान नहीं हो सकती।

दिति ने पैर पकड़ लिए तो )षि बोले कि तेरे बच्चे तो राक्षस होंगे पर पोते जो होंगे वो भक्त होंगे। इस शाप के परिणामस्वरूप जय और विजय दिति के गर्भ में सौ वर्षों तक रहे फिर हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप के रूप में इनका जन्म हुआ। हिरण्यकश्यप का पुत्र हुआ प्रहृलाद जो भक्त शिरोमणि बना। अच्छी माँ के अच्छी सन्तान होती है, दुष्ट माँ के दुष्ट सन्तान होती है। अच्छी माँ के दुष्ट सन्तान नहीं हो सकती। सन्तान के स्वभाव से ही माँ के स्वभाव का ऑकलन करना चाहिए। खेती होती है तो भूमि के तरीके से ही होती है। जमीन के जैसे परमाणु होंगे वैसी ही फसल होती है। माँ देवी होगी तो देवता पैदा होंगे और यदि माँ भूतनी होगी तो भूत ही पैदा होंगे।

Saturday, February 14, 2009

जो स्त्री अपने पति का इस्तेमाल अपने मतलब के लिए करती है, उसके दुष्ट संतान पैदा होती है

जो पत्नी अपने पति के दुःख से दुःखी नहीं हो तो उसे देखने से भी पाप लगता है। वो पति जो पत्नी को दुःख दे और उसके दुःख से दुःखी न हो उसे भी देखने से पाप लगता है। पत्नी वो है जो अपने दुःख से नहीं पति के दुःख से दुःखी है, पति वो है जो अपने दुःख से नहीं पत्नी के दुःख से दुःखी है। बेटा वो है जो अपने नहीं वरन अपने माँ बाप के दुःख से दुःखी है. माँ बाप वो हैं जो अपने नहीं सन्तान के दुःख से दुःखी होते हैं। )षि कश्यप बोले, पत्नी वो है जो अपने नहीं पति के विषय में सोचती है। उसके भले के विषय में सोचती है। पर तूने ;दिति नेद्ध मित्र धर्म को, पति व्रत धर्म को कलंकित किया है। जा तुझे राक्षस संतान जुड़वाँ पैदा होंगी। जो स्त्री अपने पति का इस्तेमाल अपने मतलब के लिए करती है, उसके दुष्ट संतान पैदा होती हैऋ और जो स्त्री अपने पति को सुख देती है, उसके दुष्ट संतान पैदा हो ही नहीं सकती। आज कल हिन्दुस्तान में ५२ प्रतिशत जवान लोग तो हैं, पर इनमें से ९८ प्रतिशत शैतान ही निकलेंगे बाकी २ प्रतिशत ही देव निकलेंगे।

Wednesday, February 11, 2009

मित्र कितना ही गरीब क्यों न हो

जब जाऐं तो पानी-पानी हो जाए और जब आऐं तो रो-रो कर याद करे ऐसे मित्र के घर भूखा भी रह ले। ऐसा मित्र कितना ही गरीब क्यों न हो भाव का गरीब तो नहीं है। वहाँ जाना चाहिए। हम पर ऐसी भुखमरी नहीं है कि वहाँ जाए। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन से यही कहा था कि दुर्योधन मैं तुम्हारा अन्न नहीं खाऊँगा। क्योंकि तुम्हारे अन्दर भाव नहीं है। अन्न सिर्फ दो परिस्थितियों में खाना चाहिए एक तो जब अन्न खाए बिना भूखा मर रहा हो कोई तो किसी का भी दया खा ले और दूसरा जब कि भोजन कराने वाले के मन में भाव हो। तो कृष्ण बोले मैं भूखा मर नहीं रहा और तुम्हारे मन में भाव का अभाव है। दूसरी तरफ विदुर जी पूरे भाव से श्र(ा की भावना से प्रेम पूर्वक प्रतिक्षा में थे, तो प्रभु श्रीकृष्णा दुर्योधन की मेवा को लात मार कर उनके यहाँ साग खाने भी पहुँच गए।

Monday, February 9, 2009

किसके यहाँ जाना चाहिए साधु को?


जो आगे भलाई करे और पीछे बुराई ऐसे के घर पाँव न धरे और जो जाते ही विरोध करे उसके यहाँ भी नहीं जाना चाहिए साधु को। तो फिर किसके यहाँ जाना चाहिए साधु को?

"आवत ही हरषे भला, जाते ही दइये रोय।

तुलसी, ऐसे मित्र घर, भूखो रहियो सोय।''

Saturday, February 7, 2009

साधु भूखा मान का, धन का भूखा नाय।


"साधु भूखा मान का, धन का भूखा नाय।

जो ध का भूखा फिरे, सो कोई साधु नाय॥

आवत ही हट से नहीं, नैनन नहीं सनेह।

तुलसी, वहाँ न जाइए, चाहे कंचन बरसे मेह॥

आवत ही हरसे भला, पीछे करे छबाऊ।

तुलसी ऐसे मित्र खल, भूल न धरियो पाव॥

Tuesday, February 3, 2009

साधु महात्मा को मान अपमान का विचार नहीं करना चाहिए।

शंकर जी ने कहा जहाँ पति का विरोध हो वहाँ जाना नहीं चाहिए। सती जी ने कहा तुम्हें जाना चाहिए। साधु महात्मा को मान अपमान का विचार नहीं करना चाहिए। शंकर जी ने कहा "मान अपमान को नहीं भावना तो देखते हैं। साधु महात्मा कोई पत्थर के नहीं हैं उनमें भी संवेदनाऐं होती हैं। मान अपमान को नहीं भाव को देखते हैं-

Friday, January 30, 2009

साधु नेताओं के चक्कर काटे तो समझो सब गड़बड़ है।


सती ने शंकर जी से कहा तो उन्होंने सती को समझाया कि देखो नेताओं के यहाँ साधु महात्माओं को चक्कर नहीं लगाने चाहिए। हाँ नेता अगर साधु नेताओं के चक्कर काटे तो भली बात है लेकिन साधु नेताओं के चक्कर काटे तो समझो सब गड़बड़ है। और फिर तुम्हारे पिताजी तो हमसे विरोध भी मानते हैं।

जदपि विरोध मानि......................... वहाँ गए कल्याण न होई।

Wednesday, January 28, 2009

उन्हें कोई लेना देना नहीं।

कुर्सी का मद ऐसा हुआ कि उन्होंने एक यज्ञ किया जिसमें साधु-महात्मा शंकर जी को नहीं बुलाया गया। नेताओं के यहाँ ज्ञानी-ध्यानी की कीमत नहीं है, वहाँ तो बस जो नोट दे - वोट दे उसी की कीमत है। नेताजी तो बस आपके नोट और वोट देखेंगे बाकी वो ये नहीं देखेंगे कि आप कितने बड़े ज्ञानी ध्यानी हैं। उससे उन्हें कोई लेना देना नहीं। सती को भी नहीं बुलाया। सती है- गंगा गए तो गंगादास जमुना गए तो जमुनादास बिना भरोसे वालों को भी नहीं बुलाते नेता जी। सती को नहीं बुलाया क्योंकि वो है-चंचल उन पर भरोसा नहीं कि वो उनके सुर में ही सुर मिलाऐंगी। और सबको बुलाया-साधु महात्माओं को नहीं बुलाया- बिना भरोसे वालों को भी नहीं बुलाया।

Saturday, January 24, 2009

नन्दी महात्मा से ये चापलूसी बर्दाश्त नहीं हुई।

तो भक्त से - नन्दी महात्मा से ये चापलूसी बर्दाश्त नहीं हुई। द्विज कुल को उन्होंने श्राप दे दिया कि ये सब सर्वभक्षी होंगे, तो ब्राह्मण जो भी च+ीज स्वाद की होगी उसे ये नहीं देखेंगे कि इसे खाना उचित है अथवा अनुचित सब का भक्षण करेंगे। और धन के या इन्द्रियों के गुलाम होकर घर-घर भीख माँगते भटकते फिरेंगे। श्रीमद्भागवत्‌ में द्विज कुल को नन्दी ने इतना भयंकर श्राप दे दिया। ये मृगु से बर्दाश्त नहीं हुआ उन्होंने भी श्राप दे दिया कि जितने भी शंकर के मानने वाले शरीर होंगे वे सब अमंगल वेश धारण करने वाले होंगे। एक तरफ से श्राप दूसरी तरफ से भी श्राप। शंकर जी दुःखी हुए वहाँ से चले गए। ब्रह्मा जी ने दक्ष प्रजापति का और च्तवउेजपवद कर दिया और भी अहंकार हो गया, अति पति बना दिया प्रजापति की जगह। जब नेता जी की कुर्सी बढ़ गई तो अहंकार भी बढ़ गया। नेताओं में नहीं कुर्सी में अहंकार होता है कुर्सी में मद होता है।

Tuesday, January 20, 2009

ज्ञानी के भक्त होते हैं नेताओं के पास चापलूस होते हैं।

तो दक्ष प्रजापति के चापलूस राजा लोग भी शंकर भगवान का अपमान करने लगे कुछ ऐसा वैसा कहने लगे, तान फाड़ने लगे। तो शंकर जी के वाहन नन्दी जी से ये बर्दाश्त नहीं हुआ। तो शंकर कहते हैं ज्ञानी को और नन्दी कहते हैं भक्त को। तो ऐसे चापलूसों की हरकतों को भक्तगण कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।

ज्ञानी के भक्त होते हैं नेताओं के पास चापलूस होते हैं। नेताओं की नेतागीरी सलामत है, तो चापलूसों की चापलूसी सलामत है परन्तु जहाँ नेताओं की कुर्सी ज+रा खिसकी तो चापलूस दुम दबाकर के खिसके। "चापलूस भाई किसके दुम दबाकर खिसके ये न उसके, न इसके।''

Saturday, January 17, 2009

सबसे गिरा हुआ आदमी अगर ढूँढना है तो नेता को पकड़ो।

इन नेताओं को सही गलत धर्म-अधर्म से मतलब नहीं है। तभी तो ये नेता साधु महात्माओं से सम्बंध नहीं रखते हैं, कथाओं में नहीं आते। सबसे मक्कार होता है नेता। सबसे गिरा हुआ आदमी अगर ढूँढना है तो नेता को पकड़ो। जितना बड़ा नेता होगा उतना ही गिरा हुआ होगा।

हरे रामा! हरे रामा! रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा! हरे कृष्णा! कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥

नेताओं के जो चापलूस होते हैं जो चिल्लर होते हैं वो और भी अधिक खतरनाक होते हैं। नेता जी अगर कुछ सही करना भी चाहें तो ये चिल्लर चापलूस ऐजेन्ट नहीं करने देते हैं।

Thursday, January 15, 2009

इतिहास में जितने भी झंझट हुए सब नेताओं ने ही करवाए।

शंकर जी थोड़ा खराब तो लगा परन्तु उन्होंने कुछ भी कहा नहीं। यज्ञ में उपस्थित अन्य राजा व देवतागण दक्ष प्रजापति की चापलूसी करने लगे। दक्ष कहते है नेता को। नेता वो जो नेतृत्व करे। पर इन नेताओं को सही है या गलत इससे कोई मतलब नहीं होता, इनका अहंकार बहुत होता है। सही गलत नहीं सोचते बय इनकी बदनामी होनी चाहिए। ये जितने भी झगड़े आज तक हुए हैं इनके पीछे ये नेतागण ही तो हैं। इतिहास में जितने भी झंझट हुए सब नेताओं ने ही करवाए। समाज यदि शान्ति से है, तो इन नेताओं को कौन पूछे? समाज में जब झगड़ा है, झंझट है तभी तो नेताओं को लोग पूछेंगे उनके चक्कर काटेंगे। तो ये नेता तो चाहते ही नहीं कि समाज में शान्ति हो। वे तो चाहते हैं कुछ न कुछ खटपट होती रहे और लोग उन्हें पूछते रहें। पूछ और मूँछ दोनों लम्बी होती रहे। कभी जाति का, कभी धर्म का कोई न कोई झगड़ा लगाए ही रहते हैं।

Tuesday, January 13, 2009

विवाह अंश-वंश देख कर ही करना चाहिए।

दक्ष प्रजापति जब प्रविष्ट हुए तो सभी देवतागण खड़े हो गए पर ब्रह्मा व शिव जी नहीं खड़े हुए। दक्ष प्रजापति बोले कि ब्रह्मा जी तो चलो मेरे पिता हैं, नहीं खड़े हुए। पर यह शंकर तो मेरा दामाद है, बेटे के समान है इसने खड़े न होकर अपनी धृष्टता का परिचय दिया है-गँवार है यह। इसका अंश वंश कुल खाता रंग रूप कुछ भी तो नहीं है। ब्रह्माजी के कहने पर मैंने इस बिना कुल वंश वाले इस भूतनाथ को अपनी बेटी दे दी। सही है विवाह अंश-वंश देख कर ही करना चाहिए। ऐसा नहीं करने के कारण ही तो मेरा अपमान हो गया। दक्ष प्रजापति ने उन्हें बहुत बुरा भला कह कर यज्ञ से वंचित भी कर दिया।

Sunday, January 11, 2009

विष्णु भगवान शान्ति चाहते हैं।

मैत्रेय )षि विदुर जी को बताने लगे- बहुत पुरानी बात है एक बार प्रजापतियों का उत्सव हुआ उसमें सब पधारे परन्तु उसमें विष्णु भगवान नहीं पधारे। विष्णु भगवान शान्ति चाहते हैं। गृहस्थी में शान्ति नहीं होती। कुछ न कुछ खटपट लगी ही रहती है तभी तो तुम सब यहाँ आए हो। खटपट छोड़ कर आए। विष्णु वहाँ नहीं थे, शंकर है- तमोगुण है, ब्रह्मा हैं- जो गुण है। सब देवता हैं- सभी इन्द्रियाँ है, मन है, प्राण है, बु(ि है, शक्ति है, पर शान्ति नहीं है, संतोष नहीं है विष्णु भगवान नहीं हैं।

Saturday, January 10, 2009

दक्ष प्रजापति की पुत्री उन्हीं के यज्ञ में समाप्त हो गई।

फिर उसके पश्चात्‌ मनु महाराज की तीसरी पुत्री थी- प्रसूति, जो दक्ष प्रजापति को ब्याही गईं, उनके सोलह सन्तानें हुई। उनमें से सबकी सन्तानें हुईं परन्तु बस एक शंकर को ब्याही गईं सती ही बिना सन्तान उत्पन्न किए दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ही भस्म हो गईं। उनकी तेरह कन्याऐं को ब्याही गईं। सबको सन्तानें हुई बस उन्हीं को नहीं। कहते हैं दक्ष प्रजापति तो अपनी पुत्रियों को बेहद प्रेम करते थे, फिर ऐसा कैसे हुआ की उनकी पुत्री उन्हीं के यज्ञ में समाप्त हो गई।

Thursday, January 8, 2009

धीरे-धीरे अभ्यास करने से चित्त के सारे के सारे आवरण हट जाते हैं


इस तरह धीरे-धीरे अभ्यास करने से चित्त के सारे के सारे आवरण हट जाते हैं, मल विक्षेप नष्ट हो जाते हैं। ज्योतिष्मात्री और श्लोक रहित बुद्धि की प्राप्ति होती है, विवेक प्राप्त होता है। तब तो आत्मा से मुक्त होकर आत्मा में स्थित होता है। अनात्मा का आवरण के हटने पर आत्मा से ज्योति से प्रदीप्त होता है। हे माँ! जो ऐसा नहीं करता है वह पुनः-पुनः जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है और नाना योनियों में भटकता है, नरकों में जाता है।

"पुनरपि जन्मम्‌ पुनरपि मरणम्‌।''

ये उपदेश दिया। माँ ने अपने पुत्र के चरण वन्दन किए। कपिल मुनि ने माँ से विदाई ली समुद्र पर आए, चरण पखारे समुद्र ने वहीं गंगासागर पर भगवान रहने लगे। माँ ने अपने शरीर को धर्मपूर्वक पूर्ण करके मुक्ति प्राप्ति की। पुरुष और प्रकृति के विवेक से योग और भक्ति पूर्वक मुक्ति के उदाहरण को आपने सुना।

Sunday, January 4, 2009

जिसमें दिमाग़ लगाना पड़ता है वही बात करो

ब्रह्मा जी ने देखा कि इनकी सृष्टि तो आपस में झगड़ा कर रही है, तो बोले ''बेटा! जिस घर में झगड़ा हो, वह घर छोड़ देना चाहिए।'' तो शमशान में बैठ गए और आत्म चिन्तन करने लगे। फिर ब्रह्मा जी ने मानसी सृष्टि की। जिसमें वाणी की देवी सरस्वती उत्पन्न हुईं। अपनी मानसी पुत्री पर ब्रह्मा जी मुग्ध हो गए, मोहित हो गए। सरस-रसीली.... सरस्वती पर। ब्रह्मा कहते हैं-बुद्धि को। बुद्धि अगर रसीली बातों में घूमी हुई है, तो समझो बर्बाद है। दूसरा तरीका पकड़ा। जिसमें दिमाग़ लगाना पड़ता है वही बात करो, वही बात सुनो और जिसमें दिमाग़ नहीं लगाना पड़ता वो बात छोड़ दो, वो गति छोड़ दो।

Saturday, January 3, 2009

तीन चीजों के लिए रोता है आदमी

तीन चीजों के लिए रोता है आदमी- एक नाम के लिए, एक जमीन के लिए, एक ब्याह के लिए। तीन ही तरह के रोने हैं। रुद्र भगवान भी रोए, बोले मुझे नाम दो, जमीन दो और मेरा ब्याह करो। तो उन्हें ग्यारह नाम दिए गए, ग्यारह स्थान दिये और ग्यारह शक्तियाँ दी गईं। जमीन के लिए जो रो रहा है वह साधु नहीं है, मान के लिए या स्त्री के लिए रो रहा है वो भी साधु नहीं। जिसने नाम, जमीन और स्त्री तीन चीजों की पकड़ छोड़ दी, वह सन्त हो गया।

Friday, January 2, 2009

जो किसी से जकड़ा हुआ नहीं है, वही साधु है

अपने दिमाग को जितना खाली रखोगे, उतने ही धर्मात्मा होते जाओगे। यही रुद्र भगवान का कहना है। जगह को खाली नहीं छोड़ोगे तो रोओगे, पछताओगे। झगड़ा किसका? जगह को भरने, पकड़ने का ही तो झगड़ा है। कोई कुर्सी चाहता है, कोई जमीन, कोई मकान को जकड़ना चाहता है, पकड़ना चाहता है। इसी से सारी क्लेष है। साधु कौन है? जिसने किसी को पकड़ा हुआ - जकड़ा हुआ नहीं है। जो किसी से जकड़ा हुआ नहीं है, वही साधु है और नहीं तो स्वादु है।