Sunday, July 26, 2009
मन के पीछे हम अनीति को पकड़ लेते हैं।
Wednesday, July 22, 2009
सब मन की कर रहे हैं
तुम दुनियाँ भर के कष्ट झेलकर पैसा कमा कर लाते हो। दुनियाँ भर की आफत उठाकर के आते हो कहीं जेब कट गई, कहीं पुलिस ने परेशान किया। तुमने सोचा कि घर जाऐंगे तो घरवाली के पास बैठेंगे, थोड़ी शान्ति आएगी और घरवाली तो मुँह फुला करके बैठी है। इन्स्पक्ैटर और अफसर को तो पैसे देकर के छूट आए, इस घरवाली से कैसे छूटोगे बेटा। बीबी को कैसे भी मना लिया अब मम्मी मुँह फुलाकर बैठी, बेटा-बेटी सब अपने मन की पूरी कराने को बैठे हैं।
Sunday, July 12, 2009
बस धर्म की नीति पर चलो
Wednesday, July 8, 2009
यहाँ क्या करना है ये ध्यान है तुम्हें?
एक महात्मा मेरे साथ पिछले २०-२५ सालों से रह रहे हैं और जब भी बात करते हैं तो अपनी बात। अब कह रहे हैं कि अरे हमें तो किराया ही नहीं दे गए। बहुत चुप रह रहे हैं। कह रहे हैं कि मैं बहुत सुधर गया हूँ। पर बात करने आए तो किराए की। तुम्हें यहाँ क्या करना है ये ध्यान है तुम्हें? या किराया का ही ध्यान है ये बताओ? अब तुम्हें क्या बात करनी है ये तुम्हें पता है? अरे साहब हमें रोटी घर की नहीं मिली। रोटी तो मिली? पेट तो भरा? "रोटी तो मिली, लेकिन...........'' ये लेकिन- लेकिन क्या है? यही सुरुचि है। गुरु बात करेंगे सुरुचि को लेकर। गुरु भी चेले को धर्म की बात नहीं बताऐंगे, मन की बात करेंगे। सुनीति की बात नहीं बताऐंगे मन की बात करेंगे। सुरुचि की बात करेंगे। अपनी-अपनी दुकान लेकर के बैठे हैं। खाली हाथ हैं और खाली जेब है और झोली बहुत लम्बी है।