Wednesday, December 31, 2008

नव वर्ष मंगलमय हो


खट्टे मीठे अनुभवों के साथ
गुज़री हुयी साल को अलविदा।
आओ नए साल का स्वागत करें।
दिव्या
रुद्र की कृपा सब पर बरसती रहे.

Monday, December 29, 2008

जिन्दगी क्या है? कम्पन है।


जानते हो दुनियाँ क्या है? एक कम्पन है। जिन्दगी क्या है? कम्पन है। कम्पन है तो जीवन है, नहीं तो जीवन खत्म हो गया, कहते हैं- कमंक हो गया। तो कम्पन ही जीवन है। कोई भी चीज खत्म नहीं होती। कम्पन से उत्पन्न होती है, कम्पन से ही समाप्त हो जाती है। कम्पन हर समय, हर जगह है। कम्पन ही धरती में, गगन में, वायु में, खाली स्थान में भी है। इसलिए खाली जगह छोड़ना धर्म है। जगह को भरना धर्म नहीं है।

Saturday, December 27, 2008

रुद्र बोलते हैं- कम्पन को, ध्वनि को।

भटके हम भगवान से नहीं, अपने फजर्+ से भटक गए हैं। हम भगवान से दूर नहीं हुए हैं, अपने-अपने फजर्+ को भूल गए हैंऋ इसलिए उससे दूर हो गए ऐसा अनुभव करते हैं। बस फजर्+ को पकड़ लें, वो तो हैं ही हमारे पास में। अपने कर्म को करो, भगवान दूर नहीं हैं। ब्रह्मा ने तप किया। भगवान ने उनके हृदय में दर्शन देकर ब्रह्मा को आदेश दिया कि मेरा ध्यान करते हुए सृष्टि की रचना करो। ब्रह्मा ने अविद्यादि पाँच वृत्तियों को उत्पन्न किया- सनकादि ऋषि उत्पन्न किए, जो सन्यासी हो गएऋ क्रोध उनके भौंहों के बीच से उत्पन्न हुआ, लाल और नीले रंग के रूप मेंऋ जिससे रुद्र भगवान प्रकट हुए। रुद्र बोलते हैं- कम्पन को, ध्वनि को।

Thursday, December 25, 2008

भगवान तो दूर हैं ही नहीं।


टेसू बनना.... टेसू की गति को छोड़ दिया ब्रह्मा ने। आकाशवाणी हुई, ''तप करो।'' तप..... तप क्या है? संयम और नियम पूर्वक दूसरे का हित साधन करना, यही तप है। किसी को भी कष्ट न देना, ही तप है।

'परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥'

"मुझे क्या करना है?'' इसको विछार करो। एक बच्चा पढ़ता है तो उसे यही सोचना, कि ÷÷मुझे पढ़ने के लिए क्या करना है।'' पत्नी है, तो उसे सोचना चाहिए कि "मुझे क्या करना है पत्नी के रिश्ते से'' और पति को भी ऐसा ही करना चाहिएऋ एक साधु को साधु का कर्त्तव्य कर्म करना चाहिए। अपने-अपने कर्त्तव्य को पकड़ लें तो भगवान तो दूर हैं ही नहीं।

Wednesday, December 24, 2008

न "हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा'' इन्सान की औलाद है, इन्सान बनेगा

÷मैं' कौन हूँ, इसको जानने के लिए, पहले यह जानो कि ÷÷मुझे क्या करना है।'' भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से यही कहा कि तुझे क्या करना है यह पकड़, ज्यादा ऊँचा-नीचा मत बन, मैं चाचा हूँ, मैं भाई हूँ, भतीजा हूँ, ब्रह्म हूँ, जीत हूँ, हार हूँ, ईश्वर हूँ, बंधन में हूँ, मुक्त हूँ, ये बेकार की बात छोड़ दे। तुझे क्या करना है ये देख।

परन्तु आज आदमी यही भूल गया है, कि "उसका कर्त्तव्य क्या है'' वह क्या करे? बस ये पकड़ के बैठा है कि "मैं कौन हूँ?'' मंत्री है तो मंत्री बना बैठा है, टेसू की तरह। प्रिंसिपल है तो प्रिंसिपल बना बैठा है, टेसू की तरह। पिता है, तो पिता का टेसू बना बैठा है, अफसर है तो अफसर का। हर आदमी जो है उसका टेसू बना बैठा है। क्या करना हैऋ ध्यान ही नहीं। तो क्या करना है? यह जिस दिन ध्यान आएगा उस दिन दुनियाँ में टेसू के गीत बन्द हो जाएंगे। उस दिन इन्सान, इन्सान बन जाएगा। फिर न "हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा'', क्योंकि हिन्दू मुस्लिम क्या है? टेसू ही तो हैं। फिर तो बस "इन्सान की औलाद है, इन्सान बनेगा।''

Tuesday, December 23, 2008

भागवत कहती है, "पहले अनुशासन सीखो।''

फिर अदृष्ट परमात्मा ने, उसके तीन भाग किए अधिदैव ;आधारद्ध, अध्यात्म ;शूक्ष्म और अधिभूत ;स्थूलद्ध। फिर भी सृष्टि नहीं हुई। तदुपरांत उनकी नाभि से कमल पर ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा सैकड़ों दिव्य तक, कमल की कर्णिका को पकड़े, नाल को पकड़े भटकता रहा, पर जान नहीं पाया कि "मैं कौन हूँ?''

देखो, वेदान्ती कहते हैं कि पहले ये जानो कि "मैं कौन हूँ''? भागवत्‌ कहती है, कि "तुम ये जान ही नहीं सकते कि तुम कौन हो''। जब जान ही नहीं सकते "मैं'' को तो क्या करोगे? बस चुप बैठ जाओ। योग कहता है ÷÷अथ योगानुशासनम्‌'' अनुशासन सीखो। वेदान्ती यदि अनुशासन करता नहीं, जीवन में संयम-नियम है नहीं, इन्द्रियाँ कहीं हैं, मन कहीं और मस्तिष्क कहीं और, तो ब्रह्मज्ञानी कहाँ से हो गया? अनुभव कहाँ से हो गया? कहाँ से ज्ञान होगा? इसलिए भागवत कहती है, "पहले अनुशासन सीखो।''

Sunday, December 21, 2008

परमात्मा की इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है

ज+र्रे-ज+र्रे में परमात्मा। ज+र्रा-ज+र्रा भी परमात्मा। "रूह-ए-रब, रब-ए-खु+दा''। उस परमात्मा ने संकल्प किया- इच्छा की, वह इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है - इसमें विकार हुआ- वह विकार ही सृष्टि है। परमात्मा के, सतोगुणी अहंकार से मन, दस इंद्रियों के देवता, रजोगुणी अहंकार से पाँच प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रिय तथा ५ कर्मेन्द्रिय- तामसी अहंकार से पंच तन्मात्रा फिर उनसे पंचमहाभूत। एक-एक से दस बने और उत्तरोत्तर गुणात्मक रूप से बढ़ते गए। उस अदृष्ट ने इन्हें जोड़ दिया और पचास करोड़ योजन का एक अण्डा बन गया। उसमें ब्रह्म ने प्रवेश किया। इसलिए इसे कहते हैं ब्रह्माण्ड। विस्तार वाला था इसलिए इसे वृहद् अण्ड भी कहते हैं। खगोल शास्त्री धरती का प्रमाण पचास करोड़ योजन का बताते हैं। विज्ञान तो ये आज का है। ये तो आज गणना कर रहे हैं। श्रीमद् भागवत तो इक्यावन सौ वर्ष पुरानी है। दुनियाँ ने जो कुछ भी लिखा है। हमारे वेदों और पुराणों से सीखा है। मुहर अपनी-अपनी लगाई है। चाहे न्यूटन हो, चाहे डाल्टन हो, चाहे आइस्टीन हो, ईसा हो, चाहे मूसा हो, चाहे कोई और हो। सबने यहीं से सब कुछ सीखा पर उस पर अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए लेबल अपने-अपने लगा दिए।

Friday, December 19, 2008

सर्व खलु इदं ब्रह्म।

जब भी बताने वालों ने बताया कि ये परमात्मा जगत रूप में कैसे दिखा? जैसे चिंगारी और आग क्या अलग-अलग हैं? नहीं! फिर भी आग चिंगारी के रूप में दिखती है। जैसे-जल और लहर दो हैं क्या? नहीं हैं न! फिर लहर क्यूँ दिखती हैं। ऐसे ही, "है परमात्मा ही परमात्मा'' फिर भी जगत दीखता है। जैसे पानी से लहर पैदा होती है पर अलग दिखती है। जैसे आग से चिंगारी पैदा होती है फिर भी अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर अलग दिखता है लेकिन कुछ अलग नहीं हुआ। पानी ही पानी है, आग ही आग है, कुछ अलग नहीं है। ऐसे ही परमात्मा ही परमात्मा है, जगत अलग नहीं है।
सदैव सौम्य इदं अग्र आसीत। सर्व खलु इदं ब्रह्म। नेह ना नास्ति किंचन।

Wednesday, December 17, 2008

केशव! आपने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया।

केशव! आपके घुंघराले काले-काले बालों की लटें आपके चौड़े वक्षस्थल पर छाई बहुत सुन्दर दीखती थीं। धनुष की आकृति जैसी लम्बी-लम्बी आपकी भंवें, कमल की पंखुड़ियों के समान चौड़ी-चौड़ी पलकें, स्भग नासिका मंद-मंद मुस्कान जैसी दन्त पंक्ति, झील सी गहरी आँखें, साँवला शरीर, उस पर आपके लाल-लाल होठ जैसे नीले आकाश में सूर्योदय हो रहा हो। मेरे बाण आपके कवच को तोड़ रहे थे आपका कोई भी अंग प्रत्यंग, रोम-रोम ऐसा नहीं था जिस पर मेरे बाणों ने लक्ष्य न किया हो, घाव न दिया हो। उस समय आप अपने रथ से कूंद पड़े। आपने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया। अर्जुन आपके पीछे-पीछे कहता रहा था ''केशव! ठहरिये, गोविन्द! ठहरिये, जगदीश! ठहरिये-आपने ऐसी प्रतिज्ञा की है कि आप निःशस्त्र ही मेरे रथ का संचालन करेंगे। आप अपनी प्रतिज्ञा को भूल रहे हैं।'' आपने नहीं सुना।

अर्जुन ने आपके चरण पकड़ लिए पर आप अर्जुन दस कदम तक घसीटते हुए मेरी ओर दौड़े आए और वहाँ पड़े हुए रथ के पहिए को उठा कर उसे स्मरण करके आपने सुदर्शन चक्र बना लिया। ये राजा लोग आपको नहीं जानते क्योंकि आपका ये शरीर है वो ऐसे इन आँखों से नहीं दीखता, उसके लिए तो दिव्य चक्षु चाहिए। ये तो चर्म चक्षु है, चर्म दृष्टि है। जो रौद्र रूप आप विश्व का संहार करते समय धारण करते हैं, उसका मैंने दर्शन किया था फिर मैंने अपने धनुष-बाण रथ के पिछले हिस्से में डालकर आपकी स्तुति की थी। तब आप वापस लौटे थे, केशव।

भगवान श्री ड्डष्ण ने उन्हें अभयदान दिया फिर भगवान श्री ड्डष्ण के कहने पर भीष्म पितामह ने पाँचों महात्मा पाण्डवों तथा द्रौपदी को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का उपदेश दिया।

Sunday, December 14, 2008

उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध चल रहा था

उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध चल रहा था. तथा आपने प्रतिज्ञा की थी कि मैं युद्ध में अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं करुँगा। जिस दिन मुझे कौरव सेना का सेनापति बनाया जा रहा था उसी दिन मैंने प्रतिज्ञा की थी कि अगली सुबह होने वाले युद्ध में मैं यदि आपको अस्त्र-शस्त्र धारण न करवा दूँ तो शान्तनु तथा गंगा का पुत्र नहीं कहलाऊँगा। आज जो न हरि शस्त्र पहाऊँ। तो ला जूँ गंगा जननी को शान्तनु सुत न कहाऊँ॥

सूरदास जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। सवेरा हुआ युद्ध प्रारम्भ हुआ तो मैंने अपने सारथी को निर्देश दिया कि जहाँ कहीं भी कृष्ण हों वहीं रथ का संचालन कर ले चलो मुझे आप उन्हीं से युद्ध करना है। महाभयानक युद्ध हो रहा था, चारों ओर भेरियाँ बज रहीं थी, लाश पर लाश गिर रही थीं। वीभत्स! लेकिन मेरी आँखें तो उस महावीभत्स दृष्य के बीच आपको ढूढ़ रही थीं और आप जब मुझे दिखे तो मेरे तरकश से निकला एक-एक तीर धनुष की प्रत्यन्चा पर से होकर आपके कवच को लक्ष्य बनाकर उसे छिन्न-भिन्न करने लगे।

Saturday, December 13, 2008

सुदर्शन चक्र है माया से और भय से बचाने वाला है

याहि याहि माम्‌ हा योम्य तेइते जगत्‌पते नायं तु मयम्‌ पश्चयते, यत्र भक्त्यु परस्परा। ये तब भगवान्‌ श्री ड्डष्ण ने उनके गर्भ में प्रवेश करके सुदर्शन चक्र द्वारा उनके गर्भ की रक्षा की थी। ये जो सुदर्शन चक्र है माया से और भय से बचाने वाला है इसलिए जब कभी भी संकट होतो सुदर्शन चक्र धारी भगवान का स्मरण करने से ध्यान करने से शान्ति मिलती है। इसको स्मरण करने का अभ्यास करना चाहिए और वहीं पर भगवान श्याम सुन्दर कुछ दिन और भी ठहरे। शौनक! इधर भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के मैदान में जहाँ भीष्म पितामह बाणों की शैया पर पड़े हुए भगवान श्रीकृष्ण को स्मरण कर रहे हैं - वह कहीं आ जा नहीं सकते हैं बस भगवान को स्मरण करते रहते हैं, आँखों से आँसू निकलते हैं। भगवान उधर ही पाँड़वों, )षि-मुनि, ब्रात्मणों तथा द्रोपदी के साथ पहुँचे। भीष्म पितामह गदगद होकर बोले आइए केशव! जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्म स्थान कमल उत्पन्न हुआ, आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। आपने जैसे दुष्ट केस के द्वारा कैद तथा शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी उसी प्रकार मेरी तथा मेरे पौत्रों की भी आपने बार-बार रक्षा की है।

Friday, December 12, 2008

सत्य क्या है? जो सबको अच्छा लगे जो सर्वहितकारी हो।

हमारे यहाँ कालिदास जी ने कहा है अभिज्ञान शाकुन्तलम्‌ में ÷सत्यम्‌ शिवम्‌ सुन्दरम्‌' सत्य क्या है? जो सबको अच्छा लगे जो सर्वहितकारी हो। इसमें तुम्हारे मन की नहीं चलेगी क्योंकि ज+रुरी नहीं है जो तुम्हारे मन को अच्छा लगे वही तुम्हारे लिए अच्छा हो। अच्छा क्या है? जिसमें तुम्हारा हित हो। जो इस भगवान की कथा को सुन्दर मानता है वही मन सुन्दर है पर जो इसे सुन्दर नहीं मानता, जो इधर उधर की मन मानी चीजों वह तो खुद ही बेकार गन्दा है क्योंकि गटर के पानी में खुशबू कैसे आ सकती है? तो उसके लिए कोई सुन्दर कैसे हो सकता है। संसार की चीजों को चाहने वाले मन के लिए तो कुछ सुन्दर हो ही नहीं सकता। . . . . . . इसीलिए तो मैं ये सत्संग तुम्हें सुना रहा हूँ, यह बहुत सुन्दर है हर किसी को इसे पढ़ना चाहिए था तथा पढ़ने के साथ-साथ इस पर विचार करके हृदयंगम करना चाहिए था। महाभारत के यु( के बाद में जब अश्वथामा के ब्रह्मस्त्र से उत्तरा का गर्भ क्षीण हो रहा था तब वह व्याकुल होकर रोती बिलखती भगवान श्री कृष्ण के चरणों में आई और कहने लगी ''भगवान्‌ चाहे मेरी मृत्यु हो जाए पर मेरे गर्भ में पल रहा इस वंश का अन्तिम चिराग रौशन रहे।''

Thursday, December 11, 2008

क्या वही सुन्दर है जो हमारी आँखों को जँचता है।

परीक्षित के साथ कैसे उनका संवाद हुआ। शुकदेव जी तो ज्यादा देर ठहरते ही नहीं हैं। गोधूलि जाती है उतनी ही देर ठहरते हैं। फिर उनका कैसे और क्या संवाद हुआ। आप हमें यह बताऐं तथा परीक्षित के जन्म, कर्म तथा सन्यास के बारे में बताऐं बड़ी जिज्ञासा हो रही है। शौनक जी की इस जिज्ञासा को सम्मान पूर्वक सूत जी स्वीकार करते हुए बोले हैं शौनक! परीक्षित का जन्म बतलाता हूँ तथा शुकदेव जी का कैसे उनसे संयोग हुआ यह मैं आपको बताता हूँ, यह बड़ी पवित्र कथा है ध्यान से सुनिए क्योंकि शरीरों से शरीरों का मिलना तो जानवरों का भी होता है जिमें प्राण नहीं है उन चीजों का भी मिलना और बिछड़ना होता है, लेकिन किसी संत तथा भक्त का मिलना यह संसार में विलक्षण घटना है। यह कहाँ मिलता है? पति-पत्नी बहुत मिलेगें संसार में लेकिन पत्नी जैसे भाव तथा पति जैसे जिज्ञासा, भाव, योग्यता ये कहाँ मिलता है? पिता-पुत्र बहुत हैं पर पिता पिता जैसा तथा पुत्र पुत्र जैसा कहाँ मिलता है? गुरु-गुरु जैसा शिष्य-शिष्य जैसा कहाँ होता है? गुरु-चेले तो बहुत हैं। बातें तो दुनियाँ में बहुत सी हैं लेने-देने की, मन की पर मन से परे उेसी बातें कहाँ हैं, कहाँ होता है सत्संग बहुत सुन्दर है ये और वह भी बहुत सुन्दर है जो इसे सुन्दर मानता है। सुन्दर है जिसका मन इसे सुन्दर मान कर ज्ञान की कथा से जड़ जाए वह भी सुन्दर हैं। यह बहस है पश्चिम के दार्शनिकों में कि सुन्दर क्या है? क्या वही सुन्दर है जो हमारी आँखों को जँचता है। यदि ऐसा है तो इस दुनियाँ में कुछ सुन्दर है ही नहीं, क्योंकि आज इन आँखों को जो सुन्दर लगता है अभी कल को कुछ हो गया तो उसे ही ये आँखें असुन्दर कहेंगी। अगर मन को जो जँचता नहीं सुन्दर है तो संसार में कुछ सुन्दर है ही नहीं। मन किसी को चाहता है और मरता है, मन किसी को नहीं चाहता और मारता है।

Monday, December 8, 2008

हमारे दिमाग में कोई क्लेष होता है, तो हम कलियुग में हैं


शौनक! परीक्षित ने जब सुना कि मेरे राज्य में कलियुग आ गया है तो उन्होंने उसका दमन और शमन करने के लिए चतुरंगिनी सेना तैयार की। उसे लेकर उन्होंने कुरु जांगल नामक प्रांत में जहां वह ठहरा था वहां प्रस्थान किया। कुरु जांगल- कुरु माने करना, जब हम कर्म करते हैं। और जांगल अर्थात अहंकार। हम कर्म करते हैं तो अहंकार को लेकर, मैं को लेकर या लक्ष्य को लेकर करते हैं। लेकिन जब कुछ भी दिमाग में नहीं रहता, बस शून्य होता है, उस समय जो क्रिया होती है तब क्लेष शांत होता है। तो रास्ते में उन्होंने देखा कि एक पैर वाला बैल रो रहा है और उसके पास में एक गाय भी रो रही है। उन्होंने बैल से पूछा कि भाई, तुम कौन हो? तो बैल बोला कि, 'मैं धर्म हूं और यह धरती है।'' परीक्षित बोले, 'तुम कैसे धर्म हो? मैंने तो सुना है कि धर्म के चार पांव होते हैं, पर तुम्हारा तो एक ही है।'' यह कहकर परीक्षित हंसने लगे। बैल बोला हां, 'सत्य बात है, पर कलियुग में तो मेरा बस यही एक पैर बचा है। बाकी तीन पांव, चरण तो खत्म हो गए हैं। माने पिचहत्तर प्रतिशत धर्म तो कलियुग में समाप्त हो गया। कलियुग का अर्थ ये मत समझना कि जो समय चल रहा है। कलियुग का अर्थ है कि जब हमारा दिमाग बेचैन होता है, जब हमारे दिमाग में कोई क्लेष होता है, तो हम कलियुग में हैं ओर हमारा दिमाग जब शांति में है तो हम सतयुग में हैं। देखना ये है कि हमारा मन, हमारा दिमाग किस युग में है। चौबीस घण्टे में चार युग बदल जाते हैं। दिन की बात करें तो इसके चार प्रहर चार युग हैं। भोर का, सुबह का समय सतयुग है, जब सब शान्त होता है। दोपहर त्रेता है, शाम को द्वापर और रात्रि में कलियुग। जब मन की मनमानी चलती हो, क्लेष हो.....................

Saturday, December 6, 2008

जब मन को कुछ नहीं चाहिए तो क्लेष मरता है।

ये जो बेचैनी है, सभी को परेशान करती है। चाहे सम्राट हो या गरीब हो। इस बेचैनी को कैसे मारा जाए, इसकी कथा है। इस बेचैनी को दूर करना हर कोई नहीं चाहता है। तुम सोच रहे होगे कि हम चाहते हैं, कि हमारी बेचैनी दूर हो जाए। नहीं चाहते। तुम चाहते हो कि हमारा नाम हो और हमारे पास दाम हो, बस। शान्ति से रहना नहीं चाहता कोई। मन माने रहना चाहते हैं। अगर शान्ति से रहना चाहे कोई तो मन को मार करके रहेगा। मन की मान करके नहीं चलेगा। तुम मन की ही मानते हो और मन को ही तानते हो। और जो क्लेष को चाहेगा वह मन की मान कर रहेगा। मन को मारेगा नहीं, उसको बढ़ावा देगा। राजा होकर क्लेष को मारने चलो।

राजा माने मन जब पूरा हो जाए। अब मन पूरा हो गया। अब मन में इच्छा नहीं रही। अब तक तो मन गुलाम था, नौकर था, भटकता था। अब मन राजा हो गया। अब कुछ भी ऐसा नहीं रहा जो उसके पास नहीं। अब उसके पास सबकुछ है। मन में जब कोई इच्छा नहीं रह जाती तब क्लेष मरता है।... और जब तक मन में कोई इच्छा है तब तक शान्ति की बात करना बेमानी बात है। सुन्दर प्रसंग है। जब मन को कुछ नहीं चाहिए तो क्लेष मरता है।

इंसान पागल की तरह बेतहाशा भाग रहा है।


उन्होंने यहां पर महात्मा का वेश धारण किया। राजसी वस्त्रों और मुकुट को उतार कर परीक्षित को राज्य दिया। द्रोपदी को साथ लिया, मथुरा में भगवान श्री कृष्ण के पुत्र प्रदुम्न, उनके पुत्र अनिरुद्ध और उनके एकमात्र पुत्र बज्रनाभ थे, उनको मथुरा का राज्य दिया। फिर सन्यास लेकर उन्होंने उत्तराखण्ड में द्रोपदी सहित स्वर्ग को प्राप्त किया, परमपद को प्राप्त किया।

शौनक! हम सब सोचते हैं कि हम अपने लिए या अपनों के लिए जी रहे हैं परन्तु ऐसा नहीं है। हम न अपने लिए जी रहे हैं और न किसी और के लिए जी रहे हैं। बस मन में एक बैचेनी है, एक तृष्णा है, एक भटकन है, एक पागलपन है, एक चाह है, जिसके पीछे इंसान पागल की तरह बेतहाशा भाग रहा है।

शक्ति बुद्धि की नहीं है, कृष्ण की है।

देखो भैया, मैं तो समझता था कि मेरे गाण्डीव की शक्ति है, अर्जुन की शक्ति है, परन्तु प्रभु श्री कृष्ण के जाने के बाद जब मैं द्वारिका वासियों को लेकर वापस आ रहा था न, तो राह में इकट्ठा होकर भीलों ने मुझसे द्वारिका वासियों को छीन लिया, लूट लिया उन्हें। मेरा गाण्डीव लकड़ी का, मिट्टी का गाण्डीव बनकर रह गया, क्योंकि वह शक्ति जो नहीं रही थी जिससे विजय श्री मिलती थी। शक्ति शरीर की नहीं है, कृष्ण की है। शक्ति बुद्धि की नहीं है, कृष्ण की है। जिससे शरीर चलता है, जिससे बुद्धि चलती है, वह शक्ति तो कृष्ण की है। लोग जड़ों को भूल जाते हैं, फूलों में अटक जाते हैं। फूल सुन्दर होते हैं तथा जड़ें कुरूप होती हैं। इसीलिए तो भगवान का स्मरण करने में कष्ट होता है। और जो संसार के भोग हैं, वे फूल हैं, उनके संग मर जाने को मिट जाने को जी करता है। इसीलिए तो आदमी आगे की सोचता है क्योंकि भोग के फूल हैं वहां पर। यदि उल्टा लौटकर जाकर देखे तो जड़ें हैं, ऊपर की तरफ हम भोग का चिन्तन करते हैं और जड़ों को भूल जाते हैं। जबकि शून्य में तो परमात्मा है।

Friday, December 5, 2008

सर्वात्मा, परमात्मा श्री कृष्ण की कृपा से हम जीवित हैं

भैया! वह सर्वात्मा, परमात्मा श्री कृष्ण , जिनकी कृपा से हम आज तक जीवित हैं और सम्राट बने हुए हैं, उन्हें हम सारी जिन्दगी भूलते रहे हैं। आज वो हमारे बीच में नहीं हैं। युधिष्ठिर बहुत रोए। भैया अभी भी समय है। हम अपने झूठे अहंकार को भूलकर जो सर्वात्मा, परमात्मा श्री कृष्ण हैं उनको स्मरण करें। देखो भैया, मैं तो समझता था कि मेरे गाण्डीव की शक्ति है, अर्जुन की शक्ति है, परन्तु प्रभु श्री कृष्ण के जाने के बाद जब मैं द्वारिका वासियों को लेकर वापस आ रहा था न, तो राह में इकट्ठा होकर भीलों ने मुझसे द्वारिका वासियों को छीन लिया, लूट लिया उन्हें। मेरा गाण्डीव लकड़ी का, मिट्टी का गाण्डीव बनकर रह गया, क्योंकि वह शक्ति जो नहीं रही थी जिससे विजय श्री मिलती थी। शक्ति शरीर की नहीं है, ड्डष्ण की है। शक्ति बु(ि की नहीं है, ड्डष्ण की है। जिससे शरीर चलता है, जिससे बि चलती है, वह शक्ति तो ड्डष्ण की है। लोग जड़ों को भूल जाते हैं, फूलों में अटक जाते हैं। फूल सुन्दर होते हैं तथा जड़ें कुरूप होती हैं। इसीलिए तो भगवान का स्मरण करने में कष्ट होता है। और जो संसार के भोग हैं, वे फूल हैं, उनके संग मर जाने को मिट जाने को जी करता है। इसीलिए तो आदमी आगे की सोचता है क्योंकि भोग के फूल हैं वहां पर। यदि उल्टा लौटकर ;त्मअमतेम जाकर देखे तो जड़ें हैं, वतपहपद है, तववजे हैं वहां। ऊपर की तरफ हम भोग का चिन्तन करते हैं और जड़ों को भूल जाते हैं। जबकि शून्य में तो परमात्मा है।

Thursday, December 4, 2008

दुराचरण हमारे जीवन के भीतर कालिमा भरता है

फिर तभी महात्मा अर्जुन भी भगवान श्री ड्डष्ण के धाम द्वारिका नगरी से लौट कर आए। युधिष्ठिर ने जब उन्हें देखा तो बोले, "अर्जुन, तुमने अवश्य कुछ पाप कर्म किया है। कुछ ऐसा किया है जो तुम्हें नहीं करना चाहिए था। कोई न कोई शास्त्र, लोक तथा समाज के विरुद्ध दुराचरण किया है। ऐसा तुम्हारा बुझा हुआ चेहरा बताता है। अर्जुन बोले, "नहीं भैया, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जैसा आप सोच रहे हैं, और न मैं कभी कर सकता हूं। हां, एक दुराचरण जो हमारे जीवन के भीतर कालिमा भरता है तथा भरने के बाद हमारे चेहरे में कालिमा पोत देता है वह एक ही है।

Monday, December 1, 2008

कुन्ती और गांधरी दोनों जल कर भस्म हो गए।

शौनक! बहुत समय हो गया एक बार अर्जन भगवान श्री कृष्ण के पास से लौटकर नहीं आए। पाण्डवों को अपशकुन हुए। उस समय उनको महात्मा विदुर भी मिल गए। विदुरजी ने युधिष्ठिर और गांधारी को योग, ज्ञान और भक्ति का उपदेश करके रात में ही भगा दिया। उन्होंने हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर योगाभ्यास के द्वारा परमपद को प्राप्त किया। वहीं जंगल की आग में कुन्ती और गांधरी दोनों जल कर भस्म हो गए। सुबह जब पांडव जागे तो न धृतराष्ट्र मिले न विदुर न गांधरी और न कुन्ती, तो वे बहुत रोए। उस समय देवर्षि नारद ने आकर युधिष्ठिर को धर्म का उपदेश कर, समझा बुझा कर शांत किया।

Friday, November 28, 2008

अश्वत्थामा ने नीति, नियम, मर्यादाओं को तिलांजलि दी

और फिर उसने अपने पूरे के पूरे शरीर के रोंये-रोंये में उत्साह का संचरण किया, फिर विचार करने लगा कि अपने इस काम को अंजाम कैसे दूं? शौनक! वहीं पर जिस पेड़ के वह नीचे था, वहां पर रात में कौओं की बात-चीत को सुना। उसने देखा कि रात में कौये अपने से ताकतवर बाज के घोंसले में चले गये और उसके बच्चों को चट करके खा गये। अश्वत्थामा ने यहीं निश्चय किया, कि पाण्डव बाज की तरह से मुझसे ताकतवर हैं, लेकिन जिस तरह से बाजों की अनुपस्थिति में इन कौओं ने बाज के बच्चों का भक्षण कर लिया। इसी तरह से मैं भी अपने काम को अंजाम दूँ। महात्मा पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ में शल्य के शिविर में चले गये थे। तब वहाँ पर दुष्ट अश्वत्थामा ने सारे के सारे नीति, नियम, मर्यादाओं को तिलांजलि देकर उन पाण्डवों के शिविर में प्रवेश किया, जहां पर द्रोपदी के पाँच पुत्र अपने मुकुटों को सिर पर बाँधकर गहरी नींद में सो रहे थे। उसने उन पाँचों चमकते हुये राजकुमारों के सिरों को काट लिया। शौनक! फिर यहाँ पर उसने राजकुमारों के सिरों को दुर्योधन को भेंट किया। दुर्योधन की आत्मा चीत्कार कर उठी। उसका हृदय दहल उठा। उसकी आँखों से क्रोध और खून के आंसू बरसने लगे। उसने कहा कि अरे अधम ब्राह्मण! तूने ये क्या किया? मैंने तुझे अपने शत्रुओं के सिर कत्ल करके लाने के लिये कहा था, अपने वंश का नाश करने के लिए तुझे नहीं कहा था। कुरु के वंश में धृतराष्ट्र के अंश-वंश से तो कोई जिन्दा बचा नहीं लेकिन कुरु के वंश में पाण्डु के ये पौत्र तो थे। तूने तो हमारे महाराज कुरू के वंश के अन्तिम चिराग को समाप्त कर दिया। तू मेरी आंखों के सामने से चला जा। वो आत्मग्लानि में सिर धुनते हुये इस संसार से विदा हो गया।

Thursday, November 27, 2008

तमोगुण से आदमी की बुद्धि काम करना छोड़ देती है

उस समय दुर्योधन के सामने, उसका गुरुपुत्र अश्वत्थामा अपने प्रिय स्वामी दुर्योधन को इस असहाय दशा में देख कर तिलमिला गया। अश्वत्थामा ने कहा है कि हे राजन! अगर आप समझते हैं कि आपका जीवन इस प्रतिशोध की अग्नि में नहीं गिरे, नहीं टूटे तो अभी युद्ध बन्द नहीं हुआ है, अभी घोषणा नहीं हुई है। आप भी जिन्दा हैं और आपकी सेना भी जिन्दा है। इसलिये युद्ध अभी बन्द नहीं है, युद्ध अभी चालू है, आप मेरा तिलक करें और मैं पाँचों पाँण्डवों के सिर कत्ल करके आपके चरणों में डाल दूँगा, तब आप चैन से मर सकेंगे। क्योंकि क्षत्रिय योद्धा का यदि शत्रु जीवित रहे और वो अपमान की आग में झुलसे तो उसको अच्छे लोकों की प्राप्ति नहीं होती। दुर्योधन ने अश्वत्थामा का तिलक किया, सेनापति बनाया। अश्वत्थामा विचार कर रहा था कि किस तरह से पांचों पाण्डवों के सिर कत्ल करके लाऊँ। शौनक! अंधेरी रात थी, अश्वत्थामा ने वहां बैठकर रुद्र भगवान का ध्यान किया। रुद्र- तमोगुणी शक्ति, रुद्र का ध्यान क्यों किया? तमोगुण से आदमी की बुद्धि काम करना छोड़ देती है, विचार करना छोड़ देती है। जैसे क्रोध आता है तो विचार विदा हो जाते हैं। काम करने की शक्ति विदा हो जाती है। इसलिए तमोगुण में पूरी शक्ति से काम कराने की जो शक्ति है, तमोगुण में जो कार्य कराने की, विचार कराने की, जो शक्ति है, उसको रुद्र कहते हैं। रुद्र माने रोदन। गति देने वाला जो इस जड़ प्रकृति को गति दे रही है, वो आत्मा ही रुद्र है।

Wednesday, November 26, 2008

दुर्योधन के जाँघ में भीमसेन ने गदा मारी थी

परीक्षित महाराज के जन्म-कर्म के विषय में प्रश्न पूछने पर सूतजी ने शौनक आदि रिषियों को बतलाने लगे, कि जिस समय महाभारत का युद्ध हो चुका था, हे शौनक! उस समय पर दुर्योधन के जाँघ में भीमसेन ने गदा मारी थी और उसके सिर पर लात मारी थी, इसलिये वो पश्चाताप की आग में झुलस रहा था। अपने स्वाभिमान के घेरने पर चीत्कार कर रहा था। रात्रि का समय हो चला था। नजदीक तालाब और घनघोर जंगल में उसकी चीखों और चिल्लाहट के सिवा अगर कुछ सुनाई देता, तो पक्षियों की भयभीत करने वाली भयंकर आवाजें और कभी हिंसक जीवों की भयंकर आवाजें। पूरा का पूरा जो जंगल था, उन आवाजों से जैसे कि भयभीत होकर कर दहल रहा हो। हवायें भी भयावयी और डरावनी थीं और तालाब में जो लहरें उठ रहीं थीं, वो किसी और चीज का संकेत करतीं थीं।

Monday, November 24, 2008

संयम से रहे तो निश्चित ही उसको कथा के फल की प्राप्ति होती है।

जहाँ बिना धन्धे की निःशुल्क ज्ञान की धारा चलती हो, मैं वहाँ जरूर आऊँगा। इसलिये कथा वही है जिसमें धन्धे का मतलब नहीं हो। इस कथा को नियमपूर्वक सुनना चाहिए। नियमों के बारे में कहा गया है कि जो इस कथा को सुने तो ब्रह्म मुहूर्त में जागे, नहाये, धोये, स्नान करे, माता-पिता, गुरू, सन्त, ब्राह्मण, गऊ की सेवा करे। दान करे, व्यास गद्दी की परिक्रमा करे। कथा स्थल पर होने वाले दैनिक हवन में आये और आहुति दे। जो आचार्य हवन कराते हैं, उनको नित्य दक्षिणा जरूर दे। बिना दक्षिणा दिये हवन का फल नहीं बनता। कथा प्रारम्भ होने से पहले आये और कथा में से पीछे जाये। कथा में खाली हाथ नहीं जाये, दान पुण्य अवश्य करना चाहिये। खाली हाथ न आये और न खाली हाथ जाये। प्रसाद लेकर के जाना चाहिये। पहले आये और पीछे जाये। पवित्र रहे, फालतू डोलना, फालतू बोलना, फालतू खान-पान इनको छोड़ दे। जिन वस्तुओं से बदबू आती है, उन चीजों को नहीं खाये जैसे- प्याज है, लहसुन है। जिनसे वासना भड़कती है, सैक्सुअल्टी बढ़ती है, उन वस्तुओं को कथा श्रवण के दौरान ग्रहण न करे। प्याज है, लहसुन है, बैंगन है, गुड़ है, तेल है, खटाई है, चिकना है, चुपड़ा है इसको छोड़ दे। नियम से कथा सुने। गुरू मन्त्र का जाप करता हुआ ब्रह्मचर्य से रहे, संयम से रहे तो निश्चित ही उसको कथा के फल की प्राप्ति होती है। यह नारद जी को उन्होंने सप्ताह श्रवण की विधि और महात्म्य कहा। फिर नारद जी ने उनको विदाई दी ।

Saturday, November 22, 2008

जहाँ धन्धा होगा, वहाँ मैं नहीं आऊँगा।

.............. सुखदेव भी पधारे। भगवान, प्रहलाद, उद्धव, अर्जुन आदि को लेकर पधारे और कहा कि जहाँ कहीं भी पवित्र कथा होगी, वहाँ मैं आऊँगा। जहाँ धन्धे की कथा होगी, वहाँ तो धन्धा ही आयेगा, धन्धे खोर ही आयेंगे, मैं नहीं आऊँगा। जैसे कुछ लोग कथा करते हैं, सत्संग करते हैं और चूरन बेचते हैं, चटनी बेचते हैं। कहते हैं कि हमारा च्यवनप्राश खाओ, हमारी चटनी खाओ, हमारी माचिस लो, हमारी बीड़ी पीओ। बीड़ी भी बनाते हैं। हमारा पैन लो, हमारी स्लेट लो, हमारी घड़ी ले लो, हमारी ये दवाई ले लो- हमारी ये दवाई ले लो।

जहाँ धन्धे का मतलब होता है, वो कथा नहीं, वो मजमा होता है। एक व्यथा होती है। वो धर्मात्मा है ही नहीं। वो तो धनमात्मा हैं। .... तो जहाँ धन्धा होगा, वहाँ मैं नहीं आऊँगा।

Thursday, November 20, 2008

बोलो- लीला विलास महाराज की जय

हमने अपने चरित्र पर नहीं तन को सजाने पर ध्यान दिया चरित्र पर नहीं चमड़े और कपड़े पर ध्यान दिया। शास्त्रों में चरित्र संवारने की बात कही गई है उसे भूल गए। टी.वी. पर, फिल्मों में जो बात आती है वहीं ध्यान रह गई टी.वी. पर बात आती है, चमड़े और कपड़े की, दमड़ी की वही ध्यान रही बाकी चरित्र को संवारने की बात जो शास्त्रों में कही, संतों ने कही वह भूल बैठे और जीवन गँवा दिया।

Wednesday, November 19, 2008

इस तन को सजाने में जीवन को बिगाड़ लिया

"इस तन को सजाने में जीवन को बिगाड़ लिया''-२

तेरी मांग रहे सूनी,ऐसा श्रृंगार किया-२

इस तन को सजाने में..................................।

सावन में पपीहे ने क्या राग सुनाए हैं-२

आंधी तूफां आए बादल भी छाए हैं

एक बूंद भी पी न सका, ये क्यूँ न विचार किया।

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया

इस तन को सजाने में................................।

इस धूल के कण-मन को, कीचड़ क्यों बनाते हो?

लहराते चमन दिल को, बीहड़ क्यों बनाते हो?

क्यों ओस में रंग भर कर तस्वीर को फाड़ दिया?

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया

इस तन को सजाने में..............................।

रंग ढंग सब बिगड़ गया, सतसंग से बिछड़ गया।-२

नर होकर नरक गया, खुद से ही झगड़ गया।

बुद्धि दी ईश्वर ने, फिर भी ना सुधार किया।

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार

इस तन को सजाने में.....................।

ग्रन्थों को पढ़कर भी अभिमान में डूबा है-२

अपने ही पुजापे में पूजा को भूला है।

रुद्र, अंधेरों में क्यूँ नहीं उजियार किया?

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया।

इन तन को सजाने में....................।

Tuesday, November 18, 2008

कपिल ने अपनी माँ दिया ज्ञान

फिर उनको नौ कन्याऐं हुईं, नौ कन्याओं का विवाह उन्होंने नौ रिषियों के साथ किया। इन्हीं में एक अनुसूया थीं, जो अत्रि रिषि को ब्याही गईं। जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं को पुत्र रूप में प्राप्त किया। इनमें से विष्णु ने दत्तात्रेय भगवान के रूप में अवतार लिया। ब्रह्माजी चन्द्रमा नाम के रिषि बने तथा शिव जी दुर्वासा नाम के रिषि बने। परीक्षित, दसवें कपिल का अवतार हुआ। ब्रह्माजी ने देवहूति से कहा कि बेटी, तुम्हारे गर्भ से जो कपिल अवतार जन्म लेंगे वो सांख्य के प्रणेता होंगे तो तुम घर में रह कर ही उनसे सांख्य का उपदेश लेकर ज्ञान प्राप्त कर सकती हो। देवहूति ने उनकी बात को ध्यान में रखा। साधु की और शास्त्र की बात को ध्यान में रखने से ही आदमी ज्ञानी बनता है। लेकिन हमें शास्त्र की और संतों की बात याद नहीं रहती इसीलिए तो हम भटक गए हैं। क्यों भटक गए हैं, इसलिए भटक गए क्योंकि न तो हमने ज्ञान को महत्व दिया न शास्त्रों का अध्ययन किया और न संतों की बातों को सुनने की फुरसत है।

Monday, November 17, 2008

निष्कपट बुद्धि तथा निश्छल कर्म से सम्बन्ध सुन्दर बनता है।

पति को बढ़िया कपड़े तथा बढ़िया श्रृंगार से नहीं रिझाया जा सकता। बढ़िया कपड़े पहनना, श्रृंगार करना ये तो नाचने गाने वाली भी कर लेती हैं, पर वो रिझाने वाली नहीं होती। प्यार से और धर्म से जीत जो होती है तो मजबूत होती है, टिकाऊ होती है। बिन्दुसर में स्नान करने के बाद वहाँ दिव्य कन्याओं ने उन्हें दिव्य आभूषण तथा वस्त्र धारण करवाए। परीक्षित, दिव्य माने पवित्र आचार विचार, पवित्र आचार विचार से पत्नी बनती है। सुन्दर कीमती वस्त्र आभूषण धारण करने से नहीं। तो दिव्य का अर्थ पवित्र आचार विचार।

दिव्य वसन भूषण पहिराए। जे नित हू तन अंगन सुहाए॥

सुन्दर और निष्कपट बुद्धि तथा निश्छल कर्म। हे! परीक्षित इसी से पति पत्नी का सम्बन्ध सुन्दर बनता है।

Sunday, November 16, 2008

जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कुछ नहीं रह जाता


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

दोनों का विवाह हुआ। बारह वर्षों तक देवहूति ने उनकी सेवा की। उसके उपरान्त कर्दम रिषि ने उनके लिए एक विमान बनाया। विमान मतलब जहाँ न ऊँच हो न नीच हो। विमान का अर्थ ये मत समझ लेना कि कोई हवाई जहाज बनाया। विमान बनाने का अर्थ- ऊँच-नीच से मुक्त होना- जहाँ समानता हो बराबरी हो। जहाँ मान-सम्मान बीच में आ जाए वहाँ पति-पत्नी का रिश्ता नहीं रह जाता। विमान माने प्यार। पति-पत्नी के हृदय में प्रेम है तो गृहस्थ है। जहाँ पति-पत्नी की अपनी-अपनी अकड़ है वहाँ गृहस्थ है ही नहीं वहाँ तो सिर्फ नाटक है नौटंकी है। तो विमान वह जहाँ कोई भी अभिमान पति को नहीं है, कोई भी अभिमान पत्नी को नहीं है। उसमें विहार करते हुए फिर उन्होंने बिन्दुसर में स्नान करने की आज्ञा दी। ऊँच नीच नहीं होनी चाहिए पति पत्नी के बीच। प्यार हो दोनों के बीच तो धर्म स्वयं ही बन जाता है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कुछ नहीं रह जाता अधर्म ही अधर्म बन जाता है। या समझिए कि प्यार होगा तो धर्म जरूर होगा या फिर यदि धर्म है तो प्यार जरूर होगा। यदि पति पत्नी के बीच कोई शक-शुबह है तो धर्म नहीं है, वहाँ पर, क्योंकि प्यार नहीं है तकरार है। वहाँ सिर्फ नाटकबाजी है। धर्म के साथ प्यार और प्यार के साथ धर्म होता है। बिन्दुसर-प्यार होगा तो धर्म होगा। प्यार ही बिन्दुसर है और धर्म ही बिन्दुसर है।

योग से व्यक्ति का कल्याण होता है और भोग से विनाश

महर्षि कर्दम पर्वत के ऊपर तपश्चर्या करते थे। भगवान के आदेश पर उन्होंने मनु की पुत्री देवहूति से विवाह किया। लेकिन उन्होंने मनु के सामने एक शर्त रखी, कि मनुष्य का जन्म मुक्ति के लिए मिला है। गृहस्थ होता है केवल वंश चलाने के लिए और वंश चलता है एक संतान से। तो जब भी एक पुत्र हो जाएगा मैं सन्यास ले लूँगा। यदि तुम्हारी पुत्री को यह मंजूर है तो मैं उससे विवाह करने को तैयार हूँ। देवहूति ने कहा मुझे भी पति चाहिए पतित नहीं चाहिए। पति वही होता है जो पत्नी को भोग से योग की तरफ ले जाए। योग से व्यक्ति का कल्याण होता है और भोग से विनाश होता है।

Friday, November 14, 2008

यदि माँ भूतनी होगी तो भूत ही पैदा होंगे।

अच्छी माँ के अच्छी सन्तान होती है, दुष्ट माँ के दुष्ट सन्तान होती है। अच्छी माँ के दुष्ट सन्तान नहीं हो सकती। सन्तान के स्वभाव से ही माँ के स्वभाव का ऑकलन करना चाहिए। खेती होती है तो भूमि के तरीके से ही होती है। जमीन के जैसे परमाणु होंगे वैसी ही फसल होती है। माँ देवी होगी तो देवता पैदा होंगे और यदि माँ भूतनी होगी तो भूत ही पैदा होंगे। ये मैंने तुम्हें बताया। परीक्षित महाराज कहने लगे, कि कृपा कर मुझे महर्षि कर्दम के जन्म कर्म के विषय में, उनके गृहस्थ के विषय में बताइए। तो कहा कि । --------इसके बारे में कल पोस्ट करेंगे।

Thursday, November 13, 2008

भक्त प्रह्लाद का जन्म

रिषि कश्यप बोले, पत्नी वो है जो अपने नहीं पति के विषय में सोचती है। उसके भले के विषय में सोचती है। पर तूने दिति ने मित्र धर्म को, पति व्रत धर्म को कलंकित किया है। जा तुझे राक्षस संतान जुड़वाँ पैदा होंगी। जो स्त्री अपने पति का इस्तेमाल अपने मतलब के लिए करती है, उसके दुष्ट संतान पैदा होती है. और जो स्त्री अपने पति को सुख देती है, उसके दुष्ट संतान पैदा हो ही नहीं सकती। आज कल हिन्दुस्तान में ५२ प्रतिशत जवान लोग तो हैं, पर इनमें से ९८ प्रतिशत शैतान ही निकलेंगे बाकी २ प्रतिशत ही देव निकलेंगे। दिति ने पैर पकड़ लिए तो रिषि बोले कि तेरे बच्चे तो राक्षस होंगे पर पोते जो होंगे वो भक्त होंगे। इस शाप के परिणामस्वरूप जय और विजय दिति के गर्भ में सौ वर्षों तक रहे फिर हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप के रूप में इनका जन्म हुआ। हिरण्यकश्यप का पुत्र हुआ प्रहृलाद जो भक्त शिरोमणि बना।

Tuesday, November 11, 2008

इंसान वह जो अपने बजाय दूसरे के दुःख से दुखी हो.

जो पत्नी अपने पति के दुःख से दुःखी नहीं हो तो उसे देखने से भी पाप लगता है। वो पति जो पत्नी को दुःख दे और उसके दुःख से दुःखी न हो उसे भी देखने से पाप लगता है। पत्नी वो है जो अपने दुःख से नहीं पति के दुःख से दुःखी है, पति वो है जो अपने दुःख से नहीं पत्नी के दुःख से दुःखी है। बेटा वो है जो अपने नहीं वरन अपने माँ बाप के दुःख से दुःखी है। माँ बाप वो हैं जो अपने नहीं सन्तान के दुःख से दुःखी होते हैं। दिव्या रुद्र कहते हैं की मनुष्य को अपने दुःख से कभी भी दुखी नहीं होना चाहिए।

Monday, November 10, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 20

साधु के विरोधी हो गए, धर्म भ्रष्ट हो गए पब्लिक के विरुद्ध हो गए। पब्लिक यानि साधु। फिर पब्लिक उनको बद्दुआएं देती है। जब नेता बिकता है तो पब्लिक बद्दुआएं देती है और नेता का विनाश होता है। कई जन्म खराब होते हैं इन नेताओं के। एक बार महर्षि कश्यप संध्यावन्दन को जा रहे थे, परीक्षित और दिति ने उनका दुपट्टा पकड़ लिया, भोग के लिए। जब उनके गर्भ स्थिर हुआ तो महर्षि कश्यप बोले, अरी दुष्ट स्त्री! पत्नी वो होती है जो पति को धर्म के मार्ग पर लगाए। उसे अपवित्र होने से बचाए। पति को पाप से बचाकर धर्म के मार्ग पर लगाने के लिए धर्म पत्नी होती है। पति मित्र होता है, पत्नी मित्र होती है मित्र वो जो मित्र का भला करे और जो मित्र अपने मतलब के लिए मित्र को अधर्म के मार्ग पर ले जाता है। उसका खुद का पतन होता है, नरक को जाता है और उसको देखने से भी पाप लगता है-

जेन मित्र दुःख होहिं दुखारी, तिनहिं विलोकन पातप भारी।

Sunday, November 9, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 19

सापत ताड़त पुरुष कहन्ता। विप्र पूजि अस गावहि सन्ता॥

इसलिए सन्त के तो चरण ही पकड़ने चाहिए। विरोध करने में तो विनाश है। ये जय विजय इन्हीं का पतन हुआ। बड़े समझने की बात है कि जब तक आदमी दुःखी होता है, तब तक तो ठीक रहता है पर जब उसे थोड़ा बहुत पूछा जाने लगे, मान मिले तभी वह भ्रष्ट होता है- जय और विजय। जय होने लगे कहीं पुजने लगे, तभी आदमी भ्रष्ट होने लगे। जय जयकार होने में ही भ्रष्ट होते हैं। जब तक कोई नहीं पूछता, तब तक आदमी सही काम करता है। जब नेता जी पुजने लगते हैं- जय-जय होने लगती है तो नेताजी बिकने लगते हैं। गलत काम करने लगते हैं। जहाँ पब्लिक ने उन्हें नेता मान लिया तो नेताजी पब्लिक के नाम पर बिकने लगते हैं चाहे पहले जब कोई नहीं पूछता था तो पब्लिक के लिए काम करते थे, पर नेता बन कर बिकने लगे। आज कल लोग करते क्या हैं? अगर किसी को बनना है तो हर जाति से वोट नहीं लेने। उस जाति के एक नेता को खरीद लिया। जैसे बघेलों का एक नेता है। उसे खरीद लिया दस बीस करोड़ में जाटों का ब्राह्मणों का एक नेता है, उसको खरीद लिया। वो जानते हैं कि ये एक नेता अपनी जाति के कितने ही आदमियों को leed कर रहा है तो उसे खरीद लो। आज कल आदमी नहीं बिक रहा है। आज कल बड़े-बड़े नेता बिक रहे हैं। जैसे ही जय हुई विजय हुई नेता जी धड़ाम से गिर गए। डेढ़ पैसे के नहीं रहे।

श्रीमद भागवत कथा अंक 18

प्रश्न यह है कि ये हिरण्याक्ष हुआ कैसे? ये नेता भ्रष्ट हुए कैसे? एक बार सनकादि ऋषि भगवान के द्वार पर मिलने गए। बैकुण्ठ के सातवें द्वार पर पहुँचे। वहाँ के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें बच्चे जानकर रोक दिया और कहा कि वहाँ भगवान शयन कर रहे हैं और ये वहाँ जाकर अशान्ति करेंगे, उनके शयन में बाधा उत्पन्न करेंगे। अब सनकादि ऋषि को क्रोध आ गया और उनसे बोले कि तुम दोनों राक्षस हो क्योंकि जो भक्त और भगवान के मिलने में रोड़ा अटकाए, वह राक्षस ही होता है। जो भगवान और सन्त से विरोध करे, वह असुर होता है। जाओ, तुम राक्षस बनोगे। यहाँ रहने के लायक नहीं हो। जय विजय ने उनके चरण पकड़ लिए। सनकादि ऋषि बोले, "तीन जन्म तक तुम राक्षस बनोगे, ताकतवर बनोगे, तपस्वी बनोगे, मगर भगवान के हाथ से तुम्हारी मृत्यु भी होगी और चौथे जन्म में फिर यहाँ के द्वारपाल बनोगे।'' साधु क्रोध करे तो भी चरण पकड़ने में ही खैर है, साधु गाली दे, चाहे श्राप दे तो भी चरण पकड़ने में ही खैर है। साधु से तर्क और बराबरी नहीं करनी चाहिए, नहीं तो समझो नाश है, चाहे फिर वह त्रिलोकपति रावण ही क्यों न हो। विभीषण को अर्थात्‌ अपने छोटे भाई को लात मारी तो नाश हो गया उसका।

Saturday, November 8, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 17

महाराज! सबके सब जितने भी राक्षस हैं। सब धरती को अंधेरे में पाताल में ले गए हैं। धरती के मालिक बन गए हैं, मन्त्री, राजा, महाराजा बन गए हैं। ब्रह्माजी के विचार से फिर नासिका के द्वारा परमात्मा प्रकट हुए। देखते ही देखते वे अंगुष्ट प्रमाण वाराह शिशु से बहुत विशाल आकृति लेकर गर्जना करने लगे। तो सब देवताओं को प्रसन्नता हुई तथा राक्षसों को कम्पन हुआ। इस प्रकार वाराह भगवान प्रकट हुए। वाराह का अर्थ होता है पवित्र कर्म को बढ़ावा दे, पर आज के नेता कैसे हो गए हैं? आज के नेता काहे के नेता जो भ्रष्टाचार, लूट खसोट तथा धन्धे खोरी को बढ़ावा देते हैं। तो दो तरह के नेता हैं, एक वाराह भगवान हैं और एक आज के नेता जो अपने घर को सोने से चमका रहे हैं तो हिरण्याक्ष नेता जी हैं। एक तो जो दुनियाँ की खुशी के लिए अपने प्राण संकट में डाल रहे हैं। तो वाराह भगवान ने वहाँ उससे भयंकर युद्ध किया पर वह पकड़ में नहीं आया तो उसकी कनपटी पर जोरदार थप्पड़ मारा, जिससे वो मर गया, उसकी ज्योति भगवान वाराह में प्रवेश कर गई। उन्होंने धरती को मुक्त किया। बोलिए "श्री वाराह भगवान की जय।'' जब तक आदमी छुप करके कुकर्म करने की आदत नहीं छोड़ेगा तब तक देश का और धरती का विकास नहीं होगा। अगर सारे के सारे नेताओं के यहाँ छापे मार दिए जाएं तो देश की गरीबी को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। लेकिन जो छापे मारने वाले हैं वो भी राक्षस हैं जिनके यहाँ छापे मारना है, वे भी राक्षस हैं। अलग-अलग कुर्सी के राक्षस हैं। संसद में जाकर सबके सब एक साथ। और जनता को लड़वाने-मरवाने और उनकी जेब पर ीवसक करने के लिए यहाँ भाषण बाजी। ये मर गया तो वाराह प्रकट हो गए। )त्‌ कर्म तभी बहेगा, जब हम अपने दिमाग़ की चमक को अंधेरे के धर्म को छोड़ देंगे, तभी धरती स्वर्ग बन सकती है। छुपकर करने की प्रवृत्ति छोड़ दें नेता तो देश-धरती सुधर जाए। सब नेता दुबक कर छुपकर कुछ न कुछ अवश्य करते हैं। इनका पब्लिक के सामने चेहरा कुछ और है, अंधेरे में असली चेहरा कुछ और। भगवान कहते हैं असली चेहरा ही सामने आना चाहिए। वही नेता है, उसी से धर्म और धरती दोनों आबाद होते हैं।

Thursday, October 30, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 16

अरे! चमक से तो बाग के बाग उजड़ गए। तुम्हारी बु(ि का क्या कहना। कोई भी चमक बैठ गई है, तो आदमी चोरी करेगा, कुकर्म करेगा, पाप करेगा, इन्सानियत नहीं करेगा। किसी के दिमाग़ में कुर्सी की चमक है तो उनतकमत, अपहरण करवाएगी, चोरी, डकैती, बदमाशी, लूट-खसोट। समाज में झगड़े किसके हैं? कुर्सी के? कौन करवाते हैं? नेता। यदि ये नेता सुधर जाएं तो संसार में राम राज्य आ जाए। अमेरिका में झगड़ा किसका है? कुर्सी का। ईराक़ में? कुर्सी का। अफगानिस्तान, पाकिस्तान बांग्लादेश में? कुर्सी की वजह से। जम्मू कश्मीर में? कुर्सी। असम और उ. प्र. में? कुर्सी का। अगर कुर्सी पर राक्षस बैठा दिया जाए तो समझो सत्यानाश है। जितने भी नेता हैं उनमें से ९८ः राक्षस हैं। तो कहते हैं कि मनुष्यों की सृष्टि नहीं हो सकती। जानवरों की है, राक्षसों की है, असुरों की है, यही रहेगी। जितनी भी पार्टी बन रही हैं, सब कुर्सी के लिए ही लड़ झगड़ रही हैं, मर रही हैं। कुर्सी के लिए कुकर्म, भ्रष्टाचार कर रही हैं। सबके सब राक्षस हैं। आप कहते है 'मनुष्यों की सृष्टि करो'। कैसे करूँ? ब्रह्माजी भी कहने लगे कि हाँ, अब मनुष्य तो रह ही नहीं गए सिर्फ राक्षस रह गए हैं, हिरण्याक्ष रह गए हैं। सबके दिमाग़ में चमक भर गई है, जो भी पार्टी आती है। किसी भी पार्टी में चरित्र नहीं रह गया। जो भी सरकार आती है उसका चरित्र देखा जाता है पर आज चरित्र तो रह ही नहीं गया है नेताओं का। अब कर्म भी नहीं रहा। सब के सब अंधेरे में पाप कर रहे हैं, छुप कर पाप कर रहे हैं। कल तक ये मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर नहीं था, आज तो ये सोने का मुकुट लेकर चलता है। कल तक ये नेता नहीं था, सड़क छाप था अब नेता बन गया है। अब दुनियाँ भर की सोने की अंगूठी, जंजीरें लादकर चलता है। कल तक ये सड़क छाप था, आज तो लखपति हो गया है। कल तक ये लड़की आवारा थी, कोई पूछता नहीं था। आज तो सूबे की मन्त्री हो गई है।

श्रीमद भागवत कथा अंक 15

जैसे पानी से लहर पैदा होती है, पर अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर दिखता है।
'मैं' कौन हूँ, इसको जानने के लिए, पहले जानो कि मुझे क्या करना है?
अपने-अपने कर्त्तव्य को पकड़ लें तो भगवान तो दूर हैं ही नहीं।
;............ गतांक से आगे क्रमशः........... फिर ब्रह्मा जी के चार मुखों से चार वेद, चार उपवेद, चार वर्ष, चार आश्रम, चार प्रकार के जीव, चार तरह की वाणी, चार प्रकार के प्राणी, चार चरण धर्म के, पाँच प्रकार के प्राण और हृदय से ओंकार उत्पन्न हुआ। शरीर के बाएं भाग से शतरूपा स्त्री तथा दाएं भाग से स्वयं भू मनु को उत्पन्न किया। स्वयं भू मनु तथा शतरूपा का विवाह हुआ। पाँच सन्तान हुई- प्रियव्रत तथा उत्तानपाद उनके दो पुत्र तथा आहूति, देवहूति तथा प्रसूति तीन कन्याएं हुईं। आहूति का विवाह रूचि प्रजापति से हुआ जिनसे यज्ञ और दक्षिणा का जन्म और विवाह हुआ। देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ, जिसके गर्भ से उत्पन्न हुए कपिल भगवान। जिन्होंने माँ को सांख्य का उपदेश करके मुक्त किया। प्रसूति दक्षिण प्रजापति ब्याही गईं जिनकी संतानों से ये सारा का सारा संसार भर गया। मनु महाराज कहने लगे कि मैं सृष्टि कैसे करूँ? परीक्षित के मनु सृष्टि विषयक प्रश्न पूछने पर सुकदेव जी ने बताया कि यह प्रश्न मनु महाराज ने ब्रह्मा जी से पूछा कि मानवीय सृष्टि किस प्रकार हो? मैथुनी सृष्टि, स्त्री तथा पुरुष के द्वारा सृष्टि कैसे होगी? ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम मनुष्यों की ही सृष्टि करो। क्योंकि मनु ने कहा कि हिरण्याक्ष धरती को अंधेरे में ले गया है, पाताल में ले गया था, नीचे को।
हिरण्याक्ष कहते हैं 'चमक' को। बुद्धि कब नीचे को जाती है? जब उसमें कोई चमक बैठ जाती है। बुद्धि में किसी की कोई चमक बैठ गई तो समझो गई नीचे। छुप करके कैसे भी उस चमक को पूरा करना चाहेगी। चमक नींबू पर लग जाए तो नींबू मर जाता है। आम पर लग जाए तो आम मर जाता है, नीम पर लग जाए तो नीम मर जाता है। जब दरख्त के दरख्त मर जाते हैं चमक से तो तुम्हारी बुद्धि कितनी बड़ी है।

Sunday, September 14, 2008

भागवत कथा अंक 14

............ गतांक से आगे क्रमशः...........
जाकी रही भावना जैसी.......... प्रभु मूरती देखी तिन तैसी।
जब भी बताने वालों ने बताया कि ये परमात्मा जगत रूप में कैसे दिखा? जैसे चिंगारी और आग क्या अलग-अलग हैं? नहीं! फिर भी आग चिंगारी के रूप में दिखती है। जैसे-जल और लहर दो हैं क्या? नहीं हैं न! फिर लहर क्यूँ दिखती हैं। ऐसे ही, "है परमात्मा ही परमात्मा'' फिर भी जगत दीखता है। जैसे पानी से लहर पैदा होती है पर अलग दिखती है। जैसे आग से चिंगारी पैदा होती है फिर भी अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर अलग दिखता है लेकिन कुछ अलग नहीं हुआ। पानी ही पानी है, आग ही आग है, कुछ अलग नहीं है। ऐसे ही परमात्मा ही परमात्मा है, जगत अलग नहीं है। सदैव सौम्य इदं अग्र आसीत। सर्व खलु इदं ब्रह्म। नेह ना नास्ति किंचन। ज़र्रे zअरे में परमात्मा। ज़र्रा ज़र्रा भी परमात्मा। "रूह-ए-रब, रब-ए-खु+दा''। उस परमात्मा ने संकल्प किया- इच्छा की, वह इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है - इसमें विकार हुआ- वह विकार ही सृष्टि है। परमात्मा के, सतोगुणी अहंकार से मन, दस इंद्रियों के देवता, रजोगुणी अहंकार से पाँच प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रिय तथा ५ कर्मेन्द्रिय- तामसी अहंकार से पंच तन्मात्रा फिर उनसे पंचमहाभूत। एक-एक से दस बने और उत्तरोत्तर गुणात्मक रूप से बढ़ते गए। उस अदृष्ट ने इन्हें जोड़ दिया और पचास करोड़ योजन का एक अण्डा बन गया। उसमें ब्रह्म ने प्रवेश किया। इसलिए इसे कहते हैं ब्रह्माण्ड। विस्तार वाला था इसलिए इसे वृहद् अण्ड भी कहते हैं। खगोल शास्त्री धरती का प्रमाण पचास करोड़ योजन का बताते हैं। विज्ञान तो ये आज का है। ये तो आज गणना कर रहे हैं। श्रीमद् भागवत तो इक्यावन सौ वर्ष पुरानी है। दुनियाँ ने जो कुछ भी लिखा है। हमारे वेदों और पुराणों से सीखा है। मुहर अपनी-अपनी लगाई है। चाहे न्यूटन हो, चाहे डाल्टन हो, चाहे आइस्टीन हो, ईसा हो, चाहे मूसा हो, चाहे कोई और हो। सबने यहीं से सब कुछ सीखा पर उस पर अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए लेबल अपने-अपने लगा दिए। फिर अदृष्ट परमात्मा ने, उसके तीन भाग किए अधिदैव ;आधारद्ध, अध्यात्म ;शूक्ष्मद्ध और अधिभूत ;स्थूलद्ध। फिर भी सृष्टि नहीं हुई।
तदुपरांत उनकी नाभि से कमल पर ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा सैकड़ों दिव्य तक, कमल की कर्णिका को पकड़े, नाल को पकड़े भटकता रहा, पर जान नहीं पाया कि "मैं कौन हूँ?'' देखो, वेदान्ती कहते हैं कि पहले ये जानो कि "मैं कौन हूँ''? भागवत्‌ कहती है, कि "तुम ये जान ही नहीं सकते कि तुम कौन हो''। जब जान ही नहीं सकते "मैं'' को तो क्या करोगे? बस चुप बैठ जाओ। योग कहता है ÷÷अथ योगानुशासनम्‌'' अनुशासन सीखो। वेदान्ती यदि अनुशासन करता नहीं, जीवन में संयम-नियम है नहीं, इन्द्रियाँ कहीं हैं, मन कहीं और मस्तिष्क कहीं और, तो ब्रह्मज्ञानी कहाँ से हो गया? अनुभव कहाँ से हो गया? कहाँ से ज्ञान होगा?
इसलिए भागवत कहती है, "पहले अनुशासन सीखो।'' "मैं' कौन हूँ, इसको जानने के लिए, पहले यह जानो कि "मुझे क्या करना है।''
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से यही कहा कि तुझे क्या करना है यह पकड़, ज्यादा ऊँचा-नीचा मत बन, मैं चाचा हूँ, मैं भाई हूँ, भतीजा हूँ, ब्रह्म हूँ, जीत हूँ, हार हूँ, ईश्वर हूँ, बंधन में हूँ, मुक्त हूँ, ये बेकार की बात छोड़ दे। तुझे क्या करना है ये देख। परन्तु आज आदमी यही भूल गया है, कि ÷÷उसका कर्त्तव्य क्या है'' वह क्या करे? बस ये पकड़ के बैठा है कि "मैं कौन हूँ?'' मंत्री है तो मंत्री बना बैठा है, टेसू की तरह। प्रिंसिपल है तो प्रिंसिपल बना बैठा है, टेसू की तरह। पिता है, तो पिता का टेसू बना बैठा है, अफसर है तो अफसर का। हर आदमी जो है उसका टेसू बना बैठा है। क्या करना हैऋ ध्यान ही नहीं। तो क्या करना है? यह जिस दिन ध्यान आएगा उस दिन दुनियाँ में टेसू के गीत बन्द हो जाएंगे। उस दिन इन्सान, इन्सान बन जाएगा।
फिर न "हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा'',
क्योंकि हिन्दू मुस्लिम क्या है? टेसू ही तो हैं। फिर तो बस "इन्सान की औलाद है, इन्सान बनेगा।'' टेसू बनना.... टेसू की गति को छोड़ दिया ब्रह्मा ने। आकाशवाणी हुई, "तप करो।'' तप..... तप क्या है? संयम और नियम पूर्वक दूसरे का हित साधन करना, यही तप है। किसी को भी कष्ट न देना, ही तप है। ÷परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥' "मुझे क्या करना है?'' इसको विचार करो। एक बच्चा पढ़ता है तो उसे यही सोचना, कि "मुझे पढ़ने के लिए क्या करना है।'' पत्नी है, तो उसे सोचना चाहिए कि "मुझे क्या करना है पत्नी के रिश्ते से'' और पति को भी ऐसा ही करना चाहिएऋ एक साधु को साधु का कर्त्तव्य कर्म करना चाहिए। अपने-अपने कर्त्तव्य को पकड़ लें तो भगवान तो दूर हैं ही नहीं। http://www.rudragiriji.net

Thursday, August 7, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 13

महाराजजी द्वारा ---

गतांक से आगे..................

....................सब ने स्वागत- सत्कार किया शुकदेव मुनि का क्योंकि जो ज्ञानी होता है, वह अपने से बड़ी आयु और बड़ी जाति वालों में भी पूज्यनीय होता है। ज्ञानी चाहे किसी भी जाति का हो पूज्य है। क्योंकि बिरादरी चमड़ी की होती है और ज्ञान बुद्धि का। बुद्धि किसी जाति विशेष की नहीं होती ज्ञान से होती है।

जाति न पूछो सन्त की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥

ज्ञान के लिए बुद्धि देखनी चाहिए और भोग के लिए जाति देखनी चाहिए। लड़के लड़की का रिश्ता करना है, तो जाति कुल, अंश-वंश इनको देखो। परन्तुु यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो जाति कुल नहीं सिर्फ बुद्धि को देखो। श्री शुकदेव जी को सबसे ऊँचे और पवित्र आसन पर बैठाया। परीक्षित महाराज ने सोचा, कि जब ये ही सबके पूज्य हैं तो क्यों न इन्हीं से अपने उद्धार की बात की जाए? इन्हीं की शरण में क्यों नहीं चला जाए?

धूप में थका आदमी यदि घने पेड़ की छाया में बैठ जाता है तो पेड़ कुछ करता है क्या? नहीं, उसे खुद ही ठण्डक मिल जाती है। ऐसे ही ज्ञानी सन्त के पास तो बैठने से ही शान्ति आ जाती है, वो कुछ करते-धरते नहीं हैं। जैसे झगड़े में जाने से ही अशान्ति होने लगती है। आग के पास जाने से ही जलन होने लगती है, आग कुछ नहीं करती। इसी तरह बिना कुछ किए सन्तों के पास शान्ति तथा दुष्टों के पास जाने से ही अशान्ति होने लगती है। इन्हीं की शरण में जाऊँ ऐसा सोचकर परीक्षित महाराज ने श्री शुकदेव मुनि के चरणों में जाकर निवेदन किया और बोले, महाराज, आप तो कहीं ठहरते ही नहीं गोधूलि जाते ही आप चल देते हैं। उससे ज्यादा तो आप ठहरते नहीं। गोधूलि में गो का अर्थ ये सींग वाली गैया नहीं। गो माने पवित्र बुद्धि। गोधूलि माने सत्संग। तो सत्संग जब तक चलता रहे श्री शुकदेव मुनि ठहरेंगे सत्संग खत्म हुआ तो वो भी ठहरेंगे नहीं, चल देंगे वहाँ से।'' तो परीक्षित महाराज बोले, मुनिवार हम चाहते हैं कि जब तक तक्षक आए- तक्षक यानि कि मौत - जब तक मौत आए जो इन्हीं सात वारों में आनी है। यही सात वार हैं। सोमवार, मंगलवार, बुधवार..........................। इन्हीं में गर्भ है, इन्हीं में जीवन है, इन्हीं में मौत है। तो जीवन में हर दिन, हर वार को सत्संग चलता रहे। जाने किस दिन तक्षक आ जाए। मौत आ जाए। तो जब प्राण निकलें तब मन बुद्धि परमात्मा में लगे हों तो ही उद्धार है। इसलिए आप कथा कहते रहें और शरीर पूरा हो जाए। संसार की किसी बात में ध्यान नहीं हो जब शरीर पूरा नहीं तो बार-बार जन्म मरण के चक्कर में आना पड़ेगा। महाराज आप कृपा कर बताऐं कि जिसका मन संसार में है ,उसका कल्याण कैसे हो और जिसका मन संसार की बातों में नहीं लगता उसका कल्याण कैसे हो। परीक्षित ने यह नहीं पूछा कि ये संसार कैसे छूटे। पागलपन है, लोगों में नौंटकी ज्यादा है। हकीकत तो कुछ और ही है।

सन्यास तो मन में है नहीं और घर छोड़ने की बात करेंगे। घर छोड़ने से अगर सन्यास हो तो से जानवर तो जन्म से सन्यासी हो जाऐं, अखण्ड सन्यासी हो जाऐं इनके तो घर ही नहीं होते। घर छोड़ने से सन्यास नहीं होता। अगर वेश बदलने से सन्यास हो तो ये नेता और अभिनेता तो पूरे के पूरे बैकुण्ठ
को घेर लें जबकि बहुत गिरे हुए होते हैं। सबसे ज्यादा गिरे हुए होते हैं ये नेता। अभिनेता तो दिखाते हैं, पर ये नेता छुपाते हैं, छुपाने वाला ज्यादा खतरनाक होता है। शुकदेवजी बोले- परीक्षित! कल्याण के लिए जहाँ भी हैं वहीं पर धर्मपूर्वक कर्म करें। यदि घर पर है तो ये नहीं सोचें कि मेरा घर कब छूटे-मेरा घर कब छूटे।

घर नहीं छोड़ना है। मेरा मोह कब छूटे ऐसा सोचना है। घर में रहते-रहते मोह नहीं पकड़े मन को ये सोचना है। जबकि आदमी मोह में तो पड़ता जाता है और घर छूट जाए ऐसा सोचता है। जैसे कि घर में पत्नी यदि मौज-मस्ती में पत्नी कपेजतनइ करती है तो पत्नी छूट जाए, मनमानी करूँ और पत्नी कपेजतनइ नहीं करे। कुटुम्ब खानपान मुहल्ला, गाँव, बिरादरी आदि मनमानी में कपेजतनइ करते हैं इसलिए वेश ले रहा है, भजन के लिए नहीं ले रहा है। तो शुकदेवजी कहते हैं कि गृहस्थ में रहें तो धर्मपूर्वक कमाई करे मोह पूर्वक नहीं। धर्म से कमाई करेगा, तो इन्द्रियाँ शुद्ध होंगी। इन्द्रियाँ शुद्ध होंगी तो बुद्धि शुद्ध होगी, बुद्धि शुद्ध होगी तो वैराग्य होगा। वैराग्य होगा तो ज्ञान होगा। ज्ञान और वैराग्य होगा तो मोक्ष हो गया। सन्त तुकराम ने दुष्ट पत्नी को नहीं छोड़ा। यूनान में भी एक महान दार्शनिक थे सुकरात। उनकी पत्नी बड़ी दुष्ट थी। धूर्त स्त्री थी। एक बार तो उसने सुकरात के ऊपर चाय की भरी केतली ही उडे+ल दी। वो पढ़ा रहे थे, और उनकी घरवाली ने क्रोध करके चाय की पूरी केतली उनके सिर पर उड़ेल दी वो पढ़ाते रहे। उनके शिष्यों ने poochhaa गुरु देव आपने कुछ कहा नहीं?'' वे बोले, क्यों नहीं। भगवान का शुक्रिया अदा किया।'' उन्होंने चाय की केतली उड़ेल दी और आपने शुक्रिया अदा किया।'' सुकरात बोले, क्योंकि चाय की केतली तो उसने उड़ेली ही थी केतली सिर पर नहीं मारी, इस बात का शुक्रिया अदा किया।'' जहाँ भी हो, यदि तुम्हें दुःख मिला है तो दुःख में भी ज्मदेपवद से दूर रहने की आदत डालो। सुख मिला है तो सुख में भी भजन करने की आदत डालो। एकदम ेमचमतंजम रहने की आदत डालो। सुबह-शाम मन को ेमचमतंजम करने का अभ्यास करें। कहें कि जब ये शरीर ही मेरा नहीं है तो इस संसार में अन्य क्या मेरा है? जब मैं जाऊँगा तो ये शरीर कुछ नहीं कर पाएगा। जब ये शरीर ही मुझे नहीं रोक सकता तो फिर संसार में क्या चीज मुझे रोक पाएगी। जब ये शरीर ही मेरा नहीं तो इस संसार में है ही क्या? क्यों बुराई करूँ। मुझे किसी ने नहीं रोका मेरे मन ने ही मुझे रोका। पिता, पुत्र, पत्नी, कुटुम्ब, खानदान, गाँव कुछ नहीं रोकता है। मेरे मन ने ही खुद को बाँध रखा है। मेरा मन जिस दिन यहाँ से छूट कर जाना चाहेगा चला जाएगा। तो सुबह-शाम मन को परमात्मा से बाँधने का अभ्यास करें। बार-बार इसे परमात्मा में ले जाऐं। ऐसे कि जब अन्त समय आए तो मन ऐसा बनाऐं कि भगवान से ऐसा बंध जाए कि किसी और में जाने की कोशिश ही न करें, मन ही न करे। एक बार परमात्मा से ऐसे बन्ध गया तो फिर मुक्ति ही है। इसलिए इसे परमात्मा में लगाने का अभ्यास करें। जिस प्रकार बिगड़ैल हाथी को अंकुश से वश में किया जाता है न, परीक्षित, उसी प्रकार इस दुष्ट मन को भगवान के नाम और ध्यान से वश में करने का प्रयास करें।

हाथी बिगड़ जाए और आदमी नीचे से अंकुश मारे तो हाथी उसे मार डालेगा। जो हाथी पर चढ़ कर बैठा हुआ है न वही उसे वश में कर सकता है। तो जो मन को काबू में करके चलता है वही भजन कर सकता है और जो मन की मान करके चलता है, वो तो भजन कर ही नहीं सकता है। जो मन को चलाता है और भजन करता है उसका मन वश में हो जाएगा और जो मन की मान कर उसके हिसाब से चलता, वो जिन्दगी में सुधर नहीं सकता है। तो काम तो मन से करो पर मन को दबा कर ब्वदजतवस करके चलो। उसको सवारी बनाओ तथा तुम सवार बनो। अगर तुम सवारी बन गए और मन तुम पर सवार हो गया है तो समझो सत्यानाश होना है भईया, बुद्धि भ्रष्ट होनी है तुम्हारी। तो परीक्षित! मन को सवारी बनाओ और उसे control करके चलो तो धीरे-धीरे वैराग्य होने लगता है और आत्मा में, भगवान में, परमात्मा में मन लगने लगता है। जिस दिन चित्त पूरी तरह परमात्मा में लग गया फिर मुक्त ही हो गया। जो तुमने पूछा था मैंने बता दिया, भजन से कीर्तन से ध्यान से, दान से धर्म से कैसे भी करके मन control हो। मनमानी नहीं करें पहले इसे धर्म में लगा और फिर इसमें भगवान को बिठालें। परीक्षित बोले,÷महाराज जी, बहुत सुन्दर कथा कह रहे हैं, आप।

अब आप मुझे ये बताऐं कि इस संसार की सृष्टि कैसे हुई? भगवान के अवतार कौन-कौन से हुए? मनु कौन थे? मन्वन्तर कौन-कौन से हैं? तथा भगवान से अवतार किस-किस मनु तथा मनवन्तर में हुए। यही प्रश्न विदुर जी ने मैत्रय जी से किया था। महाभारत के युद्ध के पश्चात्‌ यमुना जी के किनारे टहलते हुए विदुर जी उद्धव जी से मिले। दोनों मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। महाभारत के युद्ध से पहले ही दुष्ट दुर्योधन ने विदुर जी को बेइज्जत करके निकाल दिया था। तो उन्होंने अब उद्धव जी से भगवान श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों की कुशलक्षेम पूछी। वे बहुत दुःखी हुए। अपने भगवान के अपने धाम वापस लौट जाने का समाचार सुनकर विदुर जी तड़पने लगे। फिर उन्होंने उद्धव जी से कहा, तुम तो भगवान के परम मित्र तथा भक्त हो। क्या उन्होंने अपने धाम जाने से पहले मेरे प्रति कुछ कहा?'' उद्धव जी ने कहा कि सच है कि मैं भगवान का मित्र हूँ, पर आपके प्रश्नों के उत्तर तो मैत्रेय ऋषि ही देंगे। मेरे लिए तो बस भजन और ध्यान करने का आदेश है।'' इसके बाद उद्धव जी ने श्री बद्रीनारायन में जाकर तपस्या की और विदुर जी का मैत्रेय रिषि के साथ सत्संग हुआ। वही प्रसंग है,
परीक्षित, और देखः ये सारे के सारे प्रश्नों का उत्तर ÷श्रीमद् भागवत्‌ महापुराण परमहंस' में है, जिसे मैंने अपने पिता श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी महाराज से श्रवण और ग्रहण किया है। इसमें दस विषयों का वर्णन है सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मनवन्तर, ईशानु- कथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय। संसार में मन कैसे फँसता है? और मन भगवान में कैसे लय होता है? इसके वर्णन को दस सर्ग हैं। जहाँ ऐसा वर्णन है उसको भागवत कहते हैं।

संसार का आकर्षण, मन का भटकाव तथा मन का फिर भगवान में लय हो जाने का वर्णन है। दुनियाँ की बातें सिर्फ भटकाने वाली हैं, भ्रष्ट करने वाली हैं इसलिए दुनियाँ की बातों को छोड़ देना चाहिए। उनसे
मन हटाने का प्रयास करना चाहिए, तोबा करनी चाहिए।................. क्रमशः अगले अंक
में..........http://www.rudragiriji.net/

Sunday, July 20, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 12

Maharaj ji

........ शौनक, शमीक की आँखे खुलीं तो उन्होंने उस बालक को बहुत डाँटा पर अब कुछ हो नहीं सकता था। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को परीक्षित के पास भेजा। उन्होंने अपने शिष्यों को परीक्षित के पास भेजते समय श्राप के विषय में सचेत किया। परीक्षित महाराज मुकुट उतारकर चिन्तन करने लगे कि ये ऋषिपुत्र मेरे लिए श्राप नहीं हैं, यह चेतावनी है, वरदान है। आदमी दूसरे को देखकर के बड़ा बनता है नशे में। फिर बाद में जब नशा उतरता है, तो सोचता है अकेले में, कि क्या भला है, और क्या बुरा है? यह बहुत सुन्दर तरीका है। हम पूरे दिन भर कहीं छोटे बनते हैं, कहीं बड़े। कहीं इज्जत मिलती है, कहीं बेइज्जती मिलती है। पूरा दिमाग़ बेकार हो जाता है, दुनियाँ की बातों से परेशान रहता है। इसलिए हम जब खाना खाकर सोने के लिए जा रहे हों, तो हमें अपने दिमाग़ को जवजंस तमसंग कर देना चाहिए। दुनियाँ की बातों को निकाल देना चाहिए दिमाग़ में से। अगर उन बातों को घर करके सो गए, तो रातभर सो नहीं पाऐंगे और फिर दूसरे दिन का सवेरा भी खराब होगा। रात को जब सोने चलें, तो उसे जीवन का अन्तिम क्षण समझना चाहिए। जितनी ही बातें हैं दुनियाँदारी की उनको हटाकर केवल एक ही बात-
''गोविन्द मेरौ है, गोपाल मेरौ है, श्री बाँके बिहारी नन्दलाल मेरौ है।
नन्दलाल सहारा तेरा है, गोपाल सहारा तेरा है।
मैं तेरा हूँ, तू मेरा है॥२॥ ये चिड़िया रैन बसेरा है।
मेरा और सहारा कोई नहीं, दुनियाँ में हमारा कोई नहीं।
हरि आ जाओ, श्याम आ जाओ, नन्दलाल सहारा मेरा बन जाओ।
गोपाल सहारा मेरा बन जाओ।
मुझे तेरा ही सहारा हो साँवरे, मुझे अपना बना लो ओ साँवरे।''

नींद में टेंशन में नहीं जाना चाहिए टेंशन हटाओ। किसी अच्छे संत - गुरु के पास बैठकर ये सीखना चाहिए। हम टेंशन में रहना तो जानते हैं पर इस tएन्सिओं से छुटकारा कैसे पाएं, ये नहीं जानते। अच्छे गुरु के पास दिमाग को rilex करने का अभ्यास करना चाहिए। जब तक तनावमुक्त नहीं होंगे, तब तक न तो हम चैन से जी पाएंगे और न ही चैन से मर पाएंगे। इसलिए हमारे यहाँ भगवान का ध्यान करना, संध्या तथा सवेरे के लिए बताया जाता है। सवेरे इसलिए ध्यान करते हैं कि पूरा दिन जमदेपवद में रहेगा। उल्टे सीधे लोगों में रहें तो भी दिमाग़ शान्ति में रहे। सन्ध्या में इसलिए भजन करते हैं कि रात चैन से बीत जाए। सभी धर्मों में यही बताया गया है- चाहे तो मुसलमान हो, चाहे ईसाई, चाहे जैन, चाहे बौ(। कोई भी होः सभी तनावमुक्त रहना चाहते हैं। सभी शान्ति से, चैन से जीना चाहते हैं। सब जवजंस तमसंग होकर रहना, सोना तथा संसार से विदा होना चाहते हैं। ये धर्म नहीं है ये तो मत हैं अलग-अलग ईसाई मत, जैन मत, बौ( मत आदि। धर्म तो एक ही है - शान्ति; संसार से विदा होना। जब तू आयो जगत में जग हाँसे तू रोए। ऐसी करनी कर चलो तू हाँसे जग रोए। उन्होंने अपने मुकुट को उतार दियाऋ विचार करने लगे कि मैं tएन्सिओं में था, पर tएन्सिओं में रहने से शान्ति नहीं मिलती। उससे जीने का आनन्द नहीं मिलता और एक बात ध्यान रखना! बड़ी बहुमूल्य बात है। जब भी किसी से बात करो, चाहे क्रोध में हो, क्रोध की बात करते हो, तो भी जोर से भले ही बोलो पर दिमाग़ को खराब करके बात मत करना। पर हम नहीं कर पाते। कोई कितना भी अपना नजदीकी आदमी हो उससे घुलकर-मिलकर बात मत करो। कोई मिल गया तुम्हारे मन का सा आदमी, तो तुम उससे घुल-मिल गए, चिपक गए। यह बहुत खतरनाक बात है। न किसी में घुलना चाहिए, न किसी से जमदेपवद में रहना चाहिए। तो घुलना और जमदेपवद में रहना ये दोनों ही जानवर की आदत होती हैं, बद्दिमाग़ होता है। सुलझा हुआ आदमी वही होता है जो बात तो अपनेपन की करे पर घुलकर नहीं। सुनने वाले को लगे कि देखो कितने प्रेम से बात कर रहा है पर दिमाग़ उसका पूरा शुद्ध रहेअलग क्या तुम ेमचमतंजम दिमाग़ से बात करते हो? दिमाग़ में तुम्हारे छा गया है वो आदमी। तुम्हारे दिमाग़ में छा गया कोई व्यक्ति, कोई दृश्य, कोई चेहरा। तो दिमाग़ में किसी को मत घुलाओ और दिमाग़ में किसी को मत बिठाओ। कोई भी व्यक्ति या वस्तु आनन्द नहीं दे सकती, क्योंकि आनन्द तो तुम्हारे दिमाग़ में ही है। क्या सुख दुःख बाहर की चीजों से मिल सकता है- धन, सम्पत्ति, स्त्री, सन्तान, घोड़ा, गाड़ी, सामान? नहीं, इनमें सुख है तभी जब तुम्हारा मन अच्छा है। अगर मन में तुम्हारे कुछ गड़बड़ी है तो ये चीजें कहाँ से सुख दे सकेंगी। छोड़ दिया उन्होंने स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति को। उतार दिया अपना मुकुट और राजसी वस्त्र। हम सोते हैं तो दिमाग़ में स्त्री, पुत्र, मुकुट, धन, सम्पत्ति, गाड़ी, घोड़ा, मकान, दुकान, इंसंदबम, मन्त्री सन्तरी, गरीबी अमीरी सबकी गाँठ बाँध करके सोते हैं, इसीलिए तो जीवनभर रोते हैं। ये सारी की सारी कतमे उतार कर सोऐ हो कभी? नहीं सोए। तन के कपड़े उतार कर सोते हो। क्या कभी मन के कपड़े उतार कर सोए हो? बदन के कपड़े उतारो चाहे ना उतारो, परन्तु मन के कपड़े उतारने बहुत जरूरी हैं।

जीने के लिए रोता ही रहा है तू कभी पीने में कभी खाने में ढोता ही रहा है तू।

जीने के लिए रोता ही रहा है तू, कभी माँ के गर्भ में लटका हुआ।

कभी आँचल को पीने में मचला हुआ, कभी माँ के लिए, तो कभी पिता के लिए रोता ही रहा है तू

जीने के लिए रोता ही रहा है

कैसी सूरज की सुबह सुहानी हुई कैसी चन्दा की पूनम सयानी हुई इतने मासूम हैं.........................

रोता ही रहा है तू..............................

जीने के लिए रोता ही रहा है तू

तुझे करना था क्या सीख पाया नहीं क्या समझना था ये क्या दीख पाया नहीं

कभी इसका भला कभी उसका भला रोता ही रहा........................

जीने के लिए रोता ही रहा है तू। पूरे गुलशन को तूने न देखा कभी

क्या है भौरों का गुंजन न सोचा कभी जिन्दगी के लिए रोता ही रहा है तू

जीने के लिए रोता ही रहा है तू।

या तो हम किसी से घुलकर बात करते हैं या फिर दिमाग में टेंसन रखकर बात करते हैं। तो यहां परीक्षित का प्रसंग हमें यही बता रहा है कि कोई चाहे कितना ही अपना क्यों न हो, घुल करके बात नहीं करें। पहले अलग करें, अपने आपको ताकि हमको चोट नहीं पहुंचे। लेकिन तुमने घुलकर बात की हैं, इसलिए उस आदमी का तुम्हारे दिमाग में अभी तक दर्द है, दरारें पड़ी हुई हैं दिमाग पर। टेन्सन में बात करते हो इसीलिए तुम्हारा हुलिया खराब हो गया है। चेहरे का आकर्षण चला गया है। परीक्षित महाराज ने टेंसन भी खत्म किया और दिमाग जो उसमें घुला हुआ था, उसे भी अलग किया। जंगल में जाने की ज+रूरत नहीं है। कुछ भी छोड़ने की ज+रूरत नहीं है। जो एक सन्यासी को जंगल में मिलता है, वही तुम्हें घर में मिल जाएगा। यदि पत्नी दुष्टा है तो भी उसे छोड़ने की ज+रूरत नहीं है। यदि दुष्ट पत्नी की दुष्ट बातों से तुम्हें टेंसन होता है तो अभी तुम कच्चे हो। क्योंकि अभी तो पत्नी दुष्ट है, दुनियां में तो न जाने कितने दुष्ट हैं, फिर कैसे रहोगे। उससे टेंसन मत बनाओ। दिमाग को अलग रखने का अभ्यास करो। तुकाराम के दो पत्नियां थीं। दोनों ही दुष्ट थीं। दोनों आपस में रोज लड़ती झगड़ती थीं लेकिन तुकाराम के लिए एक हो जाती थीं। दोनों मिलकर उनकी पिटाई भी कर देती थीं। तुकाराम संत थे, भक्त थे। तुम कहोगे ऐसी पत्नियों को भी नहीं छोड़ा, कैसे भक्त थे? अरे नहीं छोड़ा इसीलिए तो भक्त थे, अगर छोड़ देते तो काहे के भक्त होते? जहां हो वहीं पर टेंसन से दूर रहने का अभ्यास! दुष्ट पत्नियों में रहकर वे संत बने। कबीर गरीबी और उपेक्षा में रहकर संत बने। भेष लेकर या भेष बदलकर तो गधे, घोड़े भी सुखी हो जाते हैं। संत तो वह है जो जहां है वहीं रहकर टेंसन और घुलने से खुद को हटाकर अपने मन में भगवान को बिठा ले। परीक्षित ने सोचा," मैं भी वहीं करूंगा''। अपने बड़े बेटे जनमेजय को राज्य देकर गंगा किनारे, कुशासन बिछाकर, उत्तर की ओर मुंह करके बैठ गए। सोचा कि अब संतों के सानिध्य में रहूंगा, न घुलने की बात करूंगा और न टेंसन की बात करूंगा। जिससे अलगाव होता है वही बात करना है। इस पर विचार करना ये प्रसंग बहुत कीमती है। हिन्दू हो या मुसलमान, हर किसी के लिए कीमती है। जो कथा आप सुनेंगे वह सभी के लिए है, क्योंकि हिन्दू मुसलमान तो बाहर की बातें हैं, ये जहां की बातें हो रही हैं वहां न कोई हिन्दू है न मुसलमान। वहां तो बस इन्सान हैं और ये इंसानियत की कथा है। इंसानियत के लिए कथा है। ये समझने की कथा है। समझदारों के लिए कथा है। यहां पर अठ्ठासी हजार ब्रह्मर्षियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। तभी वहां पर सोलह वर्ष की अवस्था के, सांवले शरीर वाले, घुघराले बालों वाले, जिनके शरीर पर एक लंगोटी भी नहीं थी, व्यास नन्दन शुकदेवजी, स्त्री और बच्चों ने जिनके शरीर पर धूल डाल रखी थी, अचानक प्रगट हुए। सभी उपस्थित जनों ने उनका स्वागत सत्कार किया। जो ज्ञानी होता है वह चाहे किसी भी जाति अथवा अवस्था का हो, पूजा जाता है। जाति तो चमड़ी की होती है और ज्ञान बुद्धि का होता है। बुद्धि किसी जाति विशेष की नहीं होती, ज्ञान से होती है।

जाति न बूझो सन्त की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥

ज्ञान के लिए बुद्धि देखनी चाहिए और भोग के लिए जाति। लड़की लड़के का रिश्ता करना है तो जाति, कुल, अंश, वंश देखो और अगर ज्ञान प्राप्त करना है तो जाति, कुल, अंश, वंश नहीं सिर्फ बुद्धि देखना है, सन्तत्व देखना है। शुकदेवजी को सबसे ऊंचे पवित्र आसन पर बिठाया गया। परीक्षित जी ने सोचा कि जब सबके पूज्यनीय यही हैं तो इन्हीं से अपने उधर की बात क्यों न पूछी जाए। धूप में जलते हुए को यदि घने पेड़ का साया मिल जाए तो पेड़ कुछ करता है क्या? नहीं। बस उसे खुद ही शांति मिल जाती है। ऐसे ही अच्छे सन्त के पास बैठने से खुद ब खुद ही शांति मिल जाती है। सन्त कुछ करता धरता नहीं है। जैसे झगड़े में जाने से ही दिमाग खराब हो जाता है, आग के पास जाने से जलन मिलती है, पेड़ के पास जाने से छाया मिलती है, ऐसे ही सन्त के पास जाने से शान्ति और दुष्ट के पास जाने से अशान्ति मिलती है, बिना कुछ किए ही। तो परीक्षित महाराज ने निर्णय लिया कि इन्हीं की शरण में जाएं................... .................................................. क्रमशः अगले अंक में...................................http://www.rudrasandesh.blogspot.com/ अथवा http://www.rudragiriji.net/