Saturday, March 28, 2009

विदुर के घर कान्हा

विदुर जी घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी सुलभा थीं। उन्होंने सुना कि भगवान श्री कृष्ण आज दुर्योधन को समझाने धृतराष्ट के पास आ रहे हैं। इसी रास्ते से लौटेंगे। तो सोच रही थीं कि जब भगवान इधर से गुजरेंगे तो अपनी झोंपड़ी से ही उनके दर्शन कर लूंगी। सुलभा सोच रही थी कि अब कृष्ण बैठे होंगे, दुर्योधन व धृतराष्ट के पास। साथ में कर्ण होगा, शकुनि भी होगा। चित्र बन रहे थे कल्पना में। उनकी काली काली घुंघराली लटें, उनके चौड़े मस्तक पर बिखरे हुए उनके बाल, सुन्दर बड़ी बड़++ी आंखें, सुभग नासिका, ये सब, उनका चेहरा याद आ रहा था। सोचा कि कहीं जल्दी में निकल न जाएं। तो जल्दी से स्नान कर लूं। फिर खयाल आया कि अगर वो इधर आ गए, तो उन्हें खिलाने को क्या है। देखा, घर में केले रखे थे। सोचा, चलो कन्हैंया आएंगे तो उन्हें केले दे दूंगी। फिर किबाड़ बन्द कर जल्दी जल्दी स्नान करने चली गईं। सोचा घर आए कन्हैंया, तो खाने का इन्तजाम तो है, पर दर्शन करने के लिए स्नान जरूरी है। पवित्र होना जरूरी है। तो वस्त्र उतार कर घर के भीतर स्नान करने लगीं।

Saturday, March 21, 2009

'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है

सब इंद्रियों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर कर, प्राणों को सहस्रार में पहुंचाकर ऊंकार का उच्चारण ही ध्यान की सम्यक विधि है। प्रणव शब्द का अनवरत उच्चारण व मन का उस शब्द में तादात्म्यीकरण मनुष्य को अद्भुत शांति व सुख के साम्राज्य में ले जा सकता है। आज यह तो सर्वविदित ही है कि 'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है, उसकी क्षमताओं का पुनर्नवीनीकरण होता है और कार्यक्षमता का वर्धन होता है। गीता हमें मानवता का पाइ भी पढ़ाती है। आल समूचे विश्व में जाति व सम्प्रदायगत वैमनस्य का जहर व्याप्त है। सर्वत्र घृणा, अहंकार, नफरत, स्वार्थपरता का तांडव है ऐसे में 'गीता' का यह उद्धोष मानव-मन को सचेत कर देता है -

विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गविहस्तिनि।

शुचि चैव स्वपाके च पंडिता: समदर्शिनि:॥

प्रबोधित, प्रचेतस मानस से सबसे पहली अपेक्षा तो यह की जाती है कि वह विनम्र हो, अहंकारी नहीं। साथ ही वह ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते, चांडाल - आशय यह कि सर्वदा सब प्राणियों में समान भाव रखें। जिसे कबीर 'कीरी कुंजर में रह्या समाई' कहकर, तुलसी 'सीय राम मैं सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी' कहकर व बाद के कवि 'हर देश में तू, हर वेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है' कहकर युग की मांग के अनुकू ल साम्प्रदायिक सद्भाव का अलख जगाने का सत्प्रयास कर रहे थे उस उदात्त भाव का निरूपण 'गीता' में बहुत पहले हो चुका था। वह तो सब प्राणियों में अपने समान भाव रखने का सदुपदेश देती है -

Wednesday, March 18, 2009

संदूषित भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं

सात्त्विक पुरुष' को प्रिय लगने वाले भोजन में उन सभी भोज्य पदार्थों की गणना की गयी है जो मनुष्य को दीर्घायु, बुद्धि, आरोग्य व उत्साह प्रदान करते हैं। जिन्हें रसयुक्त, चिकने (दुग्ध-घृतादि)भोजन की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यहां इसका भी स्पष्ट उल्लेख है कि राजसी आहार में कड़वे, तीखे, चटपटे, भोज्य-पदार्थ आते हैं जो नाना प्रकार के रोगों, दुखों व भय को आंत्रण देने वाले हैं। 'तामसिक आहार' के अंतर्गत उन सभी त्याज्य भोज्य पदार्थ का वर्णन है जो निश्चित रूप से शरीर-हानि करने वाले हैं। सड़ा-गला, बासी, दुर्गधयुक्त, अपवित्र (संदूषित)भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है।

Saturday, March 14, 2009

गीता जीवन जीने की एक कला है।

गीता जीवन जीने की एक कला है। आज के आपाधापी, उलझन व तनाव भरे जीवन में मनुष्य मात्र को एक स्वस्थ सोच, सम्यक दृष्टि और आशावादी संदेश प्रदत्त करती हुई आदि गुरु शंकराचार्य जी के 'भगवद्गीता किंचित धीता' के उद्धोषा को अक्षरश: चरितार्थ करती है। मृत्यु प्रत्येक जीवन का अनिवार्य सत्य है और जीवन की राह अत्यन्त जटिल। 'मृत्यु' के सच को बिना किसी घबराहट, अवसाद और निराशा के स्वीकार करते हुये जटिल जीवन को सरलता, निर्लिप्तता, कर्मठता, सजगता, जिजीविषा व समस्त उत्तरदायित्वों को धैर्यपूर्वक वहन करते हुये किस समर्पण व सादगी के साथ जीना है - यह कला सिखाती है गीता। गीता हमें सिखाती है - तन से, मन से, स्वस्थ, सबल व संतुलित होकर जीने का तरीका। क्या यह आज के मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता नहीं है?गीता भक्ति, ज्ञान, कर्म का अद्भुत समन्वय है। मनुष्य सद व विवेकपूर्ण चिंतन के द्वारा उत्कृष्ट कर्म करता हुआ समाज के लिए कितना उपयोगी हो सकता है - इसके सूत्र हमें 'गीता' में सहजता से मिल जाते हैं। सर्वप्रथम मैं 'स्वस्थ शरीर' पर विचार करूंगी। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार है और स्वस्थ मन ही सकारात्मक उर्जा के माध्यम से सशक्त समाज का निर्माण कर सकता है। गीता में 'शरीर संशुद्धि' के सर्वप्रमुख कारण 'आहार-नियमन' पर सूक्ष्मता से विचार हुआ है। आहार का मन पर प्रभाव असंदिग्ध है। अशुद्ध आहार 'मन' की शांति तरंगों में विक्षोभ उत्पन्न करता है।

Tuesday, March 10, 2009

अपने ही पुजापे में पूजा को भूला है।


ग्रन्थों को पढ़कर भी अभिमान में डूबा है-२

अपने ही पुजापे में पूजा को भूला है।

रुद्र, अंधेरों में क्यूँ नहीं उजियार किया?

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया।

इन तन को सजाने में....................।

बोलो- लीला विलास महाराज की जय।

हमने अपने चरित्र पर नहीं तन को सजाने पर ध्यान दिया चरित्र पर नहीं चमड़े और कपड़े पर ध्यान दिया। शास्त्रों में चरित्र संवारने की बात कही गई है उसे भूल गए। टी।वी। पर, फिल्मों में जो बात आती है वहीं ध्यान रह गई टी।वी। पर बात आती है, चमड़े और कपड़े की, दमड़ी की वही ध्यान रही बाकी चरित्र को संवारने की बात जो शास्त्रों में कही, संतों ने कही वह भूल बैठे और जीवन गँवा दिया।

Friday, March 6, 2009

बुद्धि दी ईश्वर ने, फिर भी ना सुधार किया।


इस धूल के कण-मन को, कीचड़ क्यों बनाते हो?

लहराते चमन दिल को, बीहड़ क्यों बनाते हो?

क्यों ओस में रंग भर कर तस्वीर को फाड़ दिया?

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया

इस तन को सजाने में..............................।

रंग ढंग सब बिगड़ गया, सतसंग से बिछड़ गया।-२

नर होकर नरक गया, खुद से ही झगड़ गया।

बुद्धि दी ईश्वर ने, फिर भी ना सुधार किया।

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया।

इस तन को सजाने में.....................।

Monday, March 2, 2009

इस तन को सजाने में जीवन को बिगाड़ लीया


;इस तन को सजाने में जीवन को बिगाड़ लियाद्ध-

२ तेरी मांग रहे सूनी,ऐसा श्रृंगार किया-२

इस तन को सजाने में..................................।

सावन में पपीहे ने क्या राग सुनाए हैं-२

आंधी तूफां आए बादल भी छाए हैं

एक बूंद भी पी न सका, ये क्यूँ न विचार किया।

तेरी मांग रहे सूनी ऐसा श्रृंगार किया

इस तन को सजाने में................................।