Thursday, August 7, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 13

महाराजजी द्वारा ---

गतांक से आगे..................

....................सब ने स्वागत- सत्कार किया शुकदेव मुनि का क्योंकि जो ज्ञानी होता है, वह अपने से बड़ी आयु और बड़ी जाति वालों में भी पूज्यनीय होता है। ज्ञानी चाहे किसी भी जाति का हो पूज्य है। क्योंकि बिरादरी चमड़ी की होती है और ज्ञान बुद्धि का। बुद्धि किसी जाति विशेष की नहीं होती ज्ञान से होती है।

जाति न पूछो सन्त की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥

ज्ञान के लिए बुद्धि देखनी चाहिए और भोग के लिए जाति देखनी चाहिए। लड़के लड़की का रिश्ता करना है, तो जाति कुल, अंश-वंश इनको देखो। परन्तुु यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो जाति कुल नहीं सिर्फ बुद्धि को देखो। श्री शुकदेव जी को सबसे ऊँचे और पवित्र आसन पर बैठाया। परीक्षित महाराज ने सोचा, कि जब ये ही सबके पूज्य हैं तो क्यों न इन्हीं से अपने उद्धार की बात की जाए? इन्हीं की शरण में क्यों नहीं चला जाए?

धूप में थका आदमी यदि घने पेड़ की छाया में बैठ जाता है तो पेड़ कुछ करता है क्या? नहीं, उसे खुद ही ठण्डक मिल जाती है। ऐसे ही ज्ञानी सन्त के पास तो बैठने से ही शान्ति आ जाती है, वो कुछ करते-धरते नहीं हैं। जैसे झगड़े में जाने से ही अशान्ति होने लगती है। आग के पास जाने से ही जलन होने लगती है, आग कुछ नहीं करती। इसी तरह बिना कुछ किए सन्तों के पास शान्ति तथा दुष्टों के पास जाने से ही अशान्ति होने लगती है। इन्हीं की शरण में जाऊँ ऐसा सोचकर परीक्षित महाराज ने श्री शुकदेव मुनि के चरणों में जाकर निवेदन किया और बोले, महाराज, आप तो कहीं ठहरते ही नहीं गोधूलि जाते ही आप चल देते हैं। उससे ज्यादा तो आप ठहरते नहीं। गोधूलि में गो का अर्थ ये सींग वाली गैया नहीं। गो माने पवित्र बुद्धि। गोधूलि माने सत्संग। तो सत्संग जब तक चलता रहे श्री शुकदेव मुनि ठहरेंगे सत्संग खत्म हुआ तो वो भी ठहरेंगे नहीं, चल देंगे वहाँ से।'' तो परीक्षित महाराज बोले, मुनिवार हम चाहते हैं कि जब तक तक्षक आए- तक्षक यानि कि मौत - जब तक मौत आए जो इन्हीं सात वारों में आनी है। यही सात वार हैं। सोमवार, मंगलवार, बुधवार..........................। इन्हीं में गर्भ है, इन्हीं में जीवन है, इन्हीं में मौत है। तो जीवन में हर दिन, हर वार को सत्संग चलता रहे। जाने किस दिन तक्षक आ जाए। मौत आ जाए। तो जब प्राण निकलें तब मन बुद्धि परमात्मा में लगे हों तो ही उद्धार है। इसलिए आप कथा कहते रहें और शरीर पूरा हो जाए। संसार की किसी बात में ध्यान नहीं हो जब शरीर पूरा नहीं तो बार-बार जन्म मरण के चक्कर में आना पड़ेगा। महाराज आप कृपा कर बताऐं कि जिसका मन संसार में है ,उसका कल्याण कैसे हो और जिसका मन संसार की बातों में नहीं लगता उसका कल्याण कैसे हो। परीक्षित ने यह नहीं पूछा कि ये संसार कैसे छूटे। पागलपन है, लोगों में नौंटकी ज्यादा है। हकीकत तो कुछ और ही है।

सन्यास तो मन में है नहीं और घर छोड़ने की बात करेंगे। घर छोड़ने से अगर सन्यास हो तो से जानवर तो जन्म से सन्यासी हो जाऐं, अखण्ड सन्यासी हो जाऐं इनके तो घर ही नहीं होते। घर छोड़ने से सन्यास नहीं होता। अगर वेश बदलने से सन्यास हो तो ये नेता और अभिनेता तो पूरे के पूरे बैकुण्ठ
को घेर लें जबकि बहुत गिरे हुए होते हैं। सबसे ज्यादा गिरे हुए होते हैं ये नेता। अभिनेता तो दिखाते हैं, पर ये नेता छुपाते हैं, छुपाने वाला ज्यादा खतरनाक होता है। शुकदेवजी बोले- परीक्षित! कल्याण के लिए जहाँ भी हैं वहीं पर धर्मपूर्वक कर्म करें। यदि घर पर है तो ये नहीं सोचें कि मेरा घर कब छूटे-मेरा घर कब छूटे।

घर नहीं छोड़ना है। मेरा मोह कब छूटे ऐसा सोचना है। घर में रहते-रहते मोह नहीं पकड़े मन को ये सोचना है। जबकि आदमी मोह में तो पड़ता जाता है और घर छूट जाए ऐसा सोचता है। जैसे कि घर में पत्नी यदि मौज-मस्ती में पत्नी कपेजतनइ करती है तो पत्नी छूट जाए, मनमानी करूँ और पत्नी कपेजतनइ नहीं करे। कुटुम्ब खानपान मुहल्ला, गाँव, बिरादरी आदि मनमानी में कपेजतनइ करते हैं इसलिए वेश ले रहा है, भजन के लिए नहीं ले रहा है। तो शुकदेवजी कहते हैं कि गृहस्थ में रहें तो धर्मपूर्वक कमाई करे मोह पूर्वक नहीं। धर्म से कमाई करेगा, तो इन्द्रियाँ शुद्ध होंगी। इन्द्रियाँ शुद्ध होंगी तो बुद्धि शुद्ध होगी, बुद्धि शुद्ध होगी तो वैराग्य होगा। वैराग्य होगा तो ज्ञान होगा। ज्ञान और वैराग्य होगा तो मोक्ष हो गया। सन्त तुकराम ने दुष्ट पत्नी को नहीं छोड़ा। यूनान में भी एक महान दार्शनिक थे सुकरात। उनकी पत्नी बड़ी दुष्ट थी। धूर्त स्त्री थी। एक बार तो उसने सुकरात के ऊपर चाय की भरी केतली ही उडे+ल दी। वो पढ़ा रहे थे, और उनकी घरवाली ने क्रोध करके चाय की पूरी केतली उनके सिर पर उड़ेल दी वो पढ़ाते रहे। उनके शिष्यों ने poochhaa गुरु देव आपने कुछ कहा नहीं?'' वे बोले, क्यों नहीं। भगवान का शुक्रिया अदा किया।'' उन्होंने चाय की केतली उड़ेल दी और आपने शुक्रिया अदा किया।'' सुकरात बोले, क्योंकि चाय की केतली तो उसने उड़ेली ही थी केतली सिर पर नहीं मारी, इस बात का शुक्रिया अदा किया।'' जहाँ भी हो, यदि तुम्हें दुःख मिला है तो दुःख में भी ज्मदेपवद से दूर रहने की आदत डालो। सुख मिला है तो सुख में भी भजन करने की आदत डालो। एकदम ेमचमतंजम रहने की आदत डालो। सुबह-शाम मन को ेमचमतंजम करने का अभ्यास करें। कहें कि जब ये शरीर ही मेरा नहीं है तो इस संसार में अन्य क्या मेरा है? जब मैं जाऊँगा तो ये शरीर कुछ नहीं कर पाएगा। जब ये शरीर ही मुझे नहीं रोक सकता तो फिर संसार में क्या चीज मुझे रोक पाएगी। जब ये शरीर ही मेरा नहीं तो इस संसार में है ही क्या? क्यों बुराई करूँ। मुझे किसी ने नहीं रोका मेरे मन ने ही मुझे रोका। पिता, पुत्र, पत्नी, कुटुम्ब, खानदान, गाँव कुछ नहीं रोकता है। मेरे मन ने ही खुद को बाँध रखा है। मेरा मन जिस दिन यहाँ से छूट कर जाना चाहेगा चला जाएगा। तो सुबह-शाम मन को परमात्मा से बाँधने का अभ्यास करें। बार-बार इसे परमात्मा में ले जाऐं। ऐसे कि जब अन्त समय आए तो मन ऐसा बनाऐं कि भगवान से ऐसा बंध जाए कि किसी और में जाने की कोशिश ही न करें, मन ही न करे। एक बार परमात्मा से ऐसे बन्ध गया तो फिर मुक्ति ही है। इसलिए इसे परमात्मा में लगाने का अभ्यास करें। जिस प्रकार बिगड़ैल हाथी को अंकुश से वश में किया जाता है न, परीक्षित, उसी प्रकार इस दुष्ट मन को भगवान के नाम और ध्यान से वश में करने का प्रयास करें।

हाथी बिगड़ जाए और आदमी नीचे से अंकुश मारे तो हाथी उसे मार डालेगा। जो हाथी पर चढ़ कर बैठा हुआ है न वही उसे वश में कर सकता है। तो जो मन को काबू में करके चलता है वही भजन कर सकता है और जो मन की मान करके चलता है, वो तो भजन कर ही नहीं सकता है। जो मन को चलाता है और भजन करता है उसका मन वश में हो जाएगा और जो मन की मान कर उसके हिसाब से चलता, वो जिन्दगी में सुधर नहीं सकता है। तो काम तो मन से करो पर मन को दबा कर ब्वदजतवस करके चलो। उसको सवारी बनाओ तथा तुम सवार बनो। अगर तुम सवारी बन गए और मन तुम पर सवार हो गया है तो समझो सत्यानाश होना है भईया, बुद्धि भ्रष्ट होनी है तुम्हारी। तो परीक्षित! मन को सवारी बनाओ और उसे control करके चलो तो धीरे-धीरे वैराग्य होने लगता है और आत्मा में, भगवान में, परमात्मा में मन लगने लगता है। जिस दिन चित्त पूरी तरह परमात्मा में लग गया फिर मुक्त ही हो गया। जो तुमने पूछा था मैंने बता दिया, भजन से कीर्तन से ध्यान से, दान से धर्म से कैसे भी करके मन control हो। मनमानी नहीं करें पहले इसे धर्म में लगा और फिर इसमें भगवान को बिठालें। परीक्षित बोले,÷महाराज जी, बहुत सुन्दर कथा कह रहे हैं, आप।

अब आप मुझे ये बताऐं कि इस संसार की सृष्टि कैसे हुई? भगवान के अवतार कौन-कौन से हुए? मनु कौन थे? मन्वन्तर कौन-कौन से हैं? तथा भगवान से अवतार किस-किस मनु तथा मनवन्तर में हुए। यही प्रश्न विदुर जी ने मैत्रय जी से किया था। महाभारत के युद्ध के पश्चात्‌ यमुना जी के किनारे टहलते हुए विदुर जी उद्धव जी से मिले। दोनों मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। महाभारत के युद्ध से पहले ही दुष्ट दुर्योधन ने विदुर जी को बेइज्जत करके निकाल दिया था। तो उन्होंने अब उद्धव जी से भगवान श्रीकृष्ण तथा पाण्डवों की कुशलक्षेम पूछी। वे बहुत दुःखी हुए। अपने भगवान के अपने धाम वापस लौट जाने का समाचार सुनकर विदुर जी तड़पने लगे। फिर उन्होंने उद्धव जी से कहा, तुम तो भगवान के परम मित्र तथा भक्त हो। क्या उन्होंने अपने धाम जाने से पहले मेरे प्रति कुछ कहा?'' उद्धव जी ने कहा कि सच है कि मैं भगवान का मित्र हूँ, पर आपके प्रश्नों के उत्तर तो मैत्रेय ऋषि ही देंगे। मेरे लिए तो बस भजन और ध्यान करने का आदेश है।'' इसके बाद उद्धव जी ने श्री बद्रीनारायन में जाकर तपस्या की और विदुर जी का मैत्रेय रिषि के साथ सत्संग हुआ। वही प्रसंग है,
परीक्षित, और देखः ये सारे के सारे प्रश्नों का उत्तर ÷श्रीमद् भागवत्‌ महापुराण परमहंस' में है, जिसे मैंने अपने पिता श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी महाराज से श्रवण और ग्रहण किया है। इसमें दस विषयों का वर्णन है सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मनवन्तर, ईशानु- कथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय। संसार में मन कैसे फँसता है? और मन भगवान में कैसे लय होता है? इसके वर्णन को दस सर्ग हैं। जहाँ ऐसा वर्णन है उसको भागवत कहते हैं।

संसार का आकर्षण, मन का भटकाव तथा मन का फिर भगवान में लय हो जाने का वर्णन है। दुनियाँ की बातें सिर्फ भटकाने वाली हैं, भ्रष्ट करने वाली हैं इसलिए दुनियाँ की बातों को छोड़ देना चाहिए। उनसे
मन हटाने का प्रयास करना चाहिए, तोबा करनी चाहिए।................. क्रमशः अगले अंक
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