Sunday, July 20, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 12

Maharaj ji

........ शौनक, शमीक की आँखे खुलीं तो उन्होंने उस बालक को बहुत डाँटा पर अब कुछ हो नहीं सकता था। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को परीक्षित के पास भेजा। उन्होंने अपने शिष्यों को परीक्षित के पास भेजते समय श्राप के विषय में सचेत किया। परीक्षित महाराज मुकुट उतारकर चिन्तन करने लगे कि ये ऋषिपुत्र मेरे लिए श्राप नहीं हैं, यह चेतावनी है, वरदान है। आदमी दूसरे को देखकर के बड़ा बनता है नशे में। फिर बाद में जब नशा उतरता है, तो सोचता है अकेले में, कि क्या भला है, और क्या बुरा है? यह बहुत सुन्दर तरीका है। हम पूरे दिन भर कहीं छोटे बनते हैं, कहीं बड़े। कहीं इज्जत मिलती है, कहीं बेइज्जती मिलती है। पूरा दिमाग़ बेकार हो जाता है, दुनियाँ की बातों से परेशान रहता है। इसलिए हम जब खाना खाकर सोने के लिए जा रहे हों, तो हमें अपने दिमाग़ को जवजंस तमसंग कर देना चाहिए। दुनियाँ की बातों को निकाल देना चाहिए दिमाग़ में से। अगर उन बातों को घर करके सो गए, तो रातभर सो नहीं पाऐंगे और फिर दूसरे दिन का सवेरा भी खराब होगा। रात को जब सोने चलें, तो उसे जीवन का अन्तिम क्षण समझना चाहिए। जितनी ही बातें हैं दुनियाँदारी की उनको हटाकर केवल एक ही बात-
''गोविन्द मेरौ है, गोपाल मेरौ है, श्री बाँके बिहारी नन्दलाल मेरौ है।
नन्दलाल सहारा तेरा है, गोपाल सहारा तेरा है।
मैं तेरा हूँ, तू मेरा है॥२॥ ये चिड़िया रैन बसेरा है।
मेरा और सहारा कोई नहीं, दुनियाँ में हमारा कोई नहीं।
हरि आ जाओ, श्याम आ जाओ, नन्दलाल सहारा मेरा बन जाओ।
गोपाल सहारा मेरा बन जाओ।
मुझे तेरा ही सहारा हो साँवरे, मुझे अपना बना लो ओ साँवरे।''

नींद में टेंशन में नहीं जाना चाहिए टेंशन हटाओ। किसी अच्छे संत - गुरु के पास बैठकर ये सीखना चाहिए। हम टेंशन में रहना तो जानते हैं पर इस tएन्सिओं से छुटकारा कैसे पाएं, ये नहीं जानते। अच्छे गुरु के पास दिमाग को rilex करने का अभ्यास करना चाहिए। जब तक तनावमुक्त नहीं होंगे, तब तक न तो हम चैन से जी पाएंगे और न ही चैन से मर पाएंगे। इसलिए हमारे यहाँ भगवान का ध्यान करना, संध्या तथा सवेरे के लिए बताया जाता है। सवेरे इसलिए ध्यान करते हैं कि पूरा दिन जमदेपवद में रहेगा। उल्टे सीधे लोगों में रहें तो भी दिमाग़ शान्ति में रहे। सन्ध्या में इसलिए भजन करते हैं कि रात चैन से बीत जाए। सभी धर्मों में यही बताया गया है- चाहे तो मुसलमान हो, चाहे ईसाई, चाहे जैन, चाहे बौ(। कोई भी होः सभी तनावमुक्त रहना चाहते हैं। सभी शान्ति से, चैन से जीना चाहते हैं। सब जवजंस तमसंग होकर रहना, सोना तथा संसार से विदा होना चाहते हैं। ये धर्म नहीं है ये तो मत हैं अलग-अलग ईसाई मत, जैन मत, बौ( मत आदि। धर्म तो एक ही है - शान्ति; संसार से विदा होना। जब तू आयो जगत में जग हाँसे तू रोए। ऐसी करनी कर चलो तू हाँसे जग रोए। उन्होंने अपने मुकुट को उतार दियाऋ विचार करने लगे कि मैं tएन्सिओं में था, पर tएन्सिओं में रहने से शान्ति नहीं मिलती। उससे जीने का आनन्द नहीं मिलता और एक बात ध्यान रखना! बड़ी बहुमूल्य बात है। जब भी किसी से बात करो, चाहे क्रोध में हो, क्रोध की बात करते हो, तो भी जोर से भले ही बोलो पर दिमाग़ को खराब करके बात मत करना। पर हम नहीं कर पाते। कोई कितना भी अपना नजदीकी आदमी हो उससे घुलकर-मिलकर बात मत करो। कोई मिल गया तुम्हारे मन का सा आदमी, तो तुम उससे घुल-मिल गए, चिपक गए। यह बहुत खतरनाक बात है। न किसी में घुलना चाहिए, न किसी से जमदेपवद में रहना चाहिए। तो घुलना और जमदेपवद में रहना ये दोनों ही जानवर की आदत होती हैं, बद्दिमाग़ होता है। सुलझा हुआ आदमी वही होता है जो बात तो अपनेपन की करे पर घुलकर नहीं। सुनने वाले को लगे कि देखो कितने प्रेम से बात कर रहा है पर दिमाग़ उसका पूरा शुद्ध रहेअलग क्या तुम ेमचमतंजम दिमाग़ से बात करते हो? दिमाग़ में तुम्हारे छा गया है वो आदमी। तुम्हारे दिमाग़ में छा गया कोई व्यक्ति, कोई दृश्य, कोई चेहरा। तो दिमाग़ में किसी को मत घुलाओ और दिमाग़ में किसी को मत बिठाओ। कोई भी व्यक्ति या वस्तु आनन्द नहीं दे सकती, क्योंकि आनन्द तो तुम्हारे दिमाग़ में ही है। क्या सुख दुःख बाहर की चीजों से मिल सकता है- धन, सम्पत्ति, स्त्री, सन्तान, घोड़ा, गाड़ी, सामान? नहीं, इनमें सुख है तभी जब तुम्हारा मन अच्छा है। अगर मन में तुम्हारे कुछ गड़बड़ी है तो ये चीजें कहाँ से सुख दे सकेंगी। छोड़ दिया उन्होंने स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति को। उतार दिया अपना मुकुट और राजसी वस्त्र। हम सोते हैं तो दिमाग़ में स्त्री, पुत्र, मुकुट, धन, सम्पत्ति, गाड़ी, घोड़ा, मकान, दुकान, इंसंदबम, मन्त्री सन्तरी, गरीबी अमीरी सबकी गाँठ बाँध करके सोते हैं, इसीलिए तो जीवनभर रोते हैं। ये सारी की सारी कतमे उतार कर सोऐ हो कभी? नहीं सोए। तन के कपड़े उतार कर सोते हो। क्या कभी मन के कपड़े उतार कर सोए हो? बदन के कपड़े उतारो चाहे ना उतारो, परन्तु मन के कपड़े उतारने बहुत जरूरी हैं।

जीने के लिए रोता ही रहा है तू कभी पीने में कभी खाने में ढोता ही रहा है तू।

जीने के लिए रोता ही रहा है तू, कभी माँ के गर्भ में लटका हुआ।

कभी आँचल को पीने में मचला हुआ, कभी माँ के लिए, तो कभी पिता के लिए रोता ही रहा है तू

जीने के लिए रोता ही रहा है

कैसी सूरज की सुबह सुहानी हुई कैसी चन्दा की पूनम सयानी हुई इतने मासूम हैं.........................

रोता ही रहा है तू..............................

जीने के लिए रोता ही रहा है तू

तुझे करना था क्या सीख पाया नहीं क्या समझना था ये क्या दीख पाया नहीं

कभी इसका भला कभी उसका भला रोता ही रहा........................

जीने के लिए रोता ही रहा है तू। पूरे गुलशन को तूने न देखा कभी

क्या है भौरों का गुंजन न सोचा कभी जिन्दगी के लिए रोता ही रहा है तू

जीने के लिए रोता ही रहा है तू।

या तो हम किसी से घुलकर बात करते हैं या फिर दिमाग में टेंसन रखकर बात करते हैं। तो यहां परीक्षित का प्रसंग हमें यही बता रहा है कि कोई चाहे कितना ही अपना क्यों न हो, घुल करके बात नहीं करें। पहले अलग करें, अपने आपको ताकि हमको चोट नहीं पहुंचे। लेकिन तुमने घुलकर बात की हैं, इसलिए उस आदमी का तुम्हारे दिमाग में अभी तक दर्द है, दरारें पड़ी हुई हैं दिमाग पर। टेन्सन में बात करते हो इसीलिए तुम्हारा हुलिया खराब हो गया है। चेहरे का आकर्षण चला गया है। परीक्षित महाराज ने टेंसन भी खत्म किया और दिमाग जो उसमें घुला हुआ था, उसे भी अलग किया। जंगल में जाने की ज+रूरत नहीं है। कुछ भी छोड़ने की ज+रूरत नहीं है। जो एक सन्यासी को जंगल में मिलता है, वही तुम्हें घर में मिल जाएगा। यदि पत्नी दुष्टा है तो भी उसे छोड़ने की ज+रूरत नहीं है। यदि दुष्ट पत्नी की दुष्ट बातों से तुम्हें टेंसन होता है तो अभी तुम कच्चे हो। क्योंकि अभी तो पत्नी दुष्ट है, दुनियां में तो न जाने कितने दुष्ट हैं, फिर कैसे रहोगे। उससे टेंसन मत बनाओ। दिमाग को अलग रखने का अभ्यास करो। तुकाराम के दो पत्नियां थीं। दोनों ही दुष्ट थीं। दोनों आपस में रोज लड़ती झगड़ती थीं लेकिन तुकाराम के लिए एक हो जाती थीं। दोनों मिलकर उनकी पिटाई भी कर देती थीं। तुकाराम संत थे, भक्त थे। तुम कहोगे ऐसी पत्नियों को भी नहीं छोड़ा, कैसे भक्त थे? अरे नहीं छोड़ा इसीलिए तो भक्त थे, अगर छोड़ देते तो काहे के भक्त होते? जहां हो वहीं पर टेंसन से दूर रहने का अभ्यास! दुष्ट पत्नियों में रहकर वे संत बने। कबीर गरीबी और उपेक्षा में रहकर संत बने। भेष लेकर या भेष बदलकर तो गधे, घोड़े भी सुखी हो जाते हैं। संत तो वह है जो जहां है वहीं रहकर टेंसन और घुलने से खुद को हटाकर अपने मन में भगवान को बिठा ले। परीक्षित ने सोचा," मैं भी वहीं करूंगा''। अपने बड़े बेटे जनमेजय को राज्य देकर गंगा किनारे, कुशासन बिछाकर, उत्तर की ओर मुंह करके बैठ गए। सोचा कि अब संतों के सानिध्य में रहूंगा, न घुलने की बात करूंगा और न टेंसन की बात करूंगा। जिससे अलगाव होता है वही बात करना है। इस पर विचार करना ये प्रसंग बहुत कीमती है। हिन्दू हो या मुसलमान, हर किसी के लिए कीमती है। जो कथा आप सुनेंगे वह सभी के लिए है, क्योंकि हिन्दू मुसलमान तो बाहर की बातें हैं, ये जहां की बातें हो रही हैं वहां न कोई हिन्दू है न मुसलमान। वहां तो बस इन्सान हैं और ये इंसानियत की कथा है। इंसानियत के लिए कथा है। ये समझने की कथा है। समझदारों के लिए कथा है। यहां पर अठ्ठासी हजार ब्रह्मर्षियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। तभी वहां पर सोलह वर्ष की अवस्था के, सांवले शरीर वाले, घुघराले बालों वाले, जिनके शरीर पर एक लंगोटी भी नहीं थी, व्यास नन्दन शुकदेवजी, स्त्री और बच्चों ने जिनके शरीर पर धूल डाल रखी थी, अचानक प्रगट हुए। सभी उपस्थित जनों ने उनका स्वागत सत्कार किया। जो ज्ञानी होता है वह चाहे किसी भी जाति अथवा अवस्था का हो, पूजा जाता है। जाति तो चमड़ी की होती है और ज्ञान बुद्धि का होता है। बुद्धि किसी जाति विशेष की नहीं होती, ज्ञान से होती है।

जाति न बूझो सन्त की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥

ज्ञान के लिए बुद्धि देखनी चाहिए और भोग के लिए जाति। लड़की लड़के का रिश्ता करना है तो जाति, कुल, अंश, वंश देखो और अगर ज्ञान प्राप्त करना है तो जाति, कुल, अंश, वंश नहीं सिर्फ बुद्धि देखना है, सन्तत्व देखना है। शुकदेवजी को सबसे ऊंचे पवित्र आसन पर बिठाया गया। परीक्षित जी ने सोचा कि जब सबके पूज्यनीय यही हैं तो इन्हीं से अपने उधर की बात क्यों न पूछी जाए। धूप में जलते हुए को यदि घने पेड़ का साया मिल जाए तो पेड़ कुछ करता है क्या? नहीं। बस उसे खुद ही शांति मिल जाती है। ऐसे ही अच्छे सन्त के पास बैठने से खुद ब खुद ही शांति मिल जाती है। सन्त कुछ करता धरता नहीं है। जैसे झगड़े में जाने से ही दिमाग खराब हो जाता है, आग के पास जाने से जलन मिलती है, पेड़ के पास जाने से छाया मिलती है, ऐसे ही सन्त के पास जाने से शान्ति और दुष्ट के पास जाने से अशान्ति मिलती है, बिना कुछ किए ही। तो परीक्षित महाराज ने निर्णय लिया कि इन्हीं की शरण में जाएं................... .................................................. क्रमशः अगले अंक में...................................http://www.rudrasandesh.blogspot.com/ अथवा http://www.rudragiriji.net/