बहुत से साधु बढ़िया कपड़े नहीं पहनते कि कोई उनको साधु नहीं मानेगा। अरे खूब साफ सुथरे, बढ़िया पहनो। बस कोई स्वाद मत रखो। बढ़िया है तो ठीक है, घटिया है तो ठीक है। लेकिन ये क्या कि बढ़िया मिल रहा है, फिर भी नहीं पहन रहे कि दुनियाँ साधु नहीं कहेगी, भगत जी नहीं मानेगी, कहेगी भोगी है ये तो। तो डर के मारे बढ़िया कपड़े पहनना छोड़ दिया। स्वाद के मारे नहीं पहना। और दूसरा कोई पहन रहा है तो कुछ कहके मुँह बना रहा है तो काहे का भगत जी है? ये तो उसकी सुरुचि है।
Thursday, September 10, 2009
Thursday, August 6, 2009
लोकेष्णा में छोड़ा तो क्या छोड़ा है?
एक राजा बाबा जी हो गया। कुछ खाता पीता नहीं, नंगा घूमता, किसी से नहीं बोलता, सोने के लिए बिस्तर भी नहीं बिछाता। तकलीफ हो गई, सूख कर काँटा सा शरीर हो गया पाँव में घाव हो गए, खराब शकल हो गई। महान सन्त का शिष्य था। उन्होंने कहा ये तू क्या कर रहा है? अति पर जी रहा है। पहले राजा था तो भोगों की अति करी कि जिसके पास जितने भोग होंगे वो उतना ही बड़ा राजा है। कौन बड़ा गृहस्थ है? जिसके पास भोग है। भोगी ही बड़ा गृहस्थ है। जिसके पास भोग कम है, वह गरीब है। बिल्कुल दरिद्र है जिसके पास भोग है ही नहीं। अति में तब भी जी रहे थे अब भी अति में जी रहे हो। तब भी अहंकार के लिए जी रहे थे, अब भी अहंकार के लिए जी रहे हो। जूते नहीं पहनेंगे कि लोग कहें"अरे वो भगत जी जो जूते भी नहीं पहनते।'' ये सुरुचि है- भीतर छुपी हुई वासना। जूते क्यूँ नहीं पहनते? जूते तुम्हारे धरम को खा जाऐंगे? जूते पहनने से तुम्हारा भजन खराब होता है क्या? अहंकार के लिए जूते छोड़ दिए। खाना छोड़ दिया। क्यों? कि लोग कहें वो वाले बाबा जो अन्न नहीं खाते कूटू ही खाते हैं। ये अहंकार ही है- रुचि है ये। लोकेष्णा में छोड़ा तो क्या छोड़ा है? न सुनीति है, न ध्रुव है।
Sunday, July 26, 2009
मन के पीछे हम अनीति को पकड़ लेते हैं।
Wednesday, July 22, 2009
सब मन की कर रहे हैं
तुम दुनियाँ भर के कष्ट झेलकर पैसा कमा कर लाते हो। दुनियाँ भर की आफत उठाकर के आते हो कहीं जेब कट गई, कहीं पुलिस ने परेशान किया। तुमने सोचा कि घर जाऐंगे तो घरवाली के पास बैठेंगे, थोड़ी शान्ति आएगी और घरवाली तो मुँह फुला करके बैठी है। इन्स्पक्ैटर और अफसर को तो पैसे देकर के छूट आए, इस घरवाली से कैसे छूटोगे बेटा। बीबी को कैसे भी मना लिया अब मम्मी मुँह फुलाकर बैठी, बेटा-बेटी सब अपने मन की पूरी कराने को बैठे हैं।
Sunday, July 12, 2009
बस धर्म की नीति पर चलो
Wednesday, July 8, 2009
यहाँ क्या करना है ये ध्यान है तुम्हें?
एक महात्मा मेरे साथ पिछले २०-२५ सालों से रह रहे हैं और जब भी बात करते हैं तो अपनी बात। अब कह रहे हैं कि अरे हमें तो किराया ही नहीं दे गए। बहुत चुप रह रहे हैं। कह रहे हैं कि मैं बहुत सुधर गया हूँ। पर बात करने आए तो किराए की। तुम्हें यहाँ क्या करना है ये ध्यान है तुम्हें? या किराया का ही ध्यान है ये बताओ? अब तुम्हें क्या बात करनी है ये तुम्हें पता है? अरे साहब हमें रोटी घर की नहीं मिली। रोटी तो मिली? पेट तो भरा? "रोटी तो मिली, लेकिन...........'' ये लेकिन- लेकिन क्या है? यही सुरुचि है। गुरु बात करेंगे सुरुचि को लेकर। गुरु भी चेले को धर्म की बात नहीं बताऐंगे, मन की बात करेंगे। सुनीति की बात नहीं बताऐंगे मन की बात करेंगे। सुरुचि की बात करेंगे। अपनी-अपनी दुकान लेकर के बैठे हैं। खाली हाथ हैं और खाली जेब है और झोली बहुत लम्बी है।
Sunday, June 28, 2009
आदमी मन की बात कहता मिलेगा
हर कोई आदमी मन की बात कहता मिलेगा, धर्म की बात कहने वाला नहीं मिलेगा। तुम्हारी बेटी आएगी तो तुमसे बेटी जैसी बात नहीं करेगी, अपनी समस्याओं की बात करेगी। वो भी अपनी सुरुचि को लटका कर घूम रही है। बेटे की बहू आएगी तो वो भी अपने मन की बात करेगी। चेला अपनी समस्याओं की बात करता है, ये नहीं कि चेले को क्या करना चाहिए।