जब यज्ञ विध्वंस हो गया तो यज्ञ नायक एकत्रित हुए। रिषि-मुनि, देव-गण आदि एकत्रित हुए। कहने लगे कि यज्ञ तो सबके भले की चीज है। यज्ञ तो सम्पन्न होना चाहिए। परन्तु यज्ञ सम्पन्न हो कैसे? जब तक शंकर जी रुष्ट हैं, यज्ञ तो हो ही नहीं सकता है। वह देव कौन है जो इसमें मदद करे। यज्ञ करना देव कार्य है। इसमें जो सहयोग और सेवा है वह देव कार्य है। ये जो सब सुनने के लिए आए हैं, देव कार्य कर रहे हैं। इतनी इतनी दूर से परेशानी उठाकर कथा सुनने आप लोग आए हैं, यह भी देव कार्य है, पवित्र लोगों का कार्य है।
Saturday, April 25, 2009
Wednesday, April 22, 2009
सेवा, शुद्धता व समर्पण हो, यही सबसे बड़ा तप है
दक्ष प्रजापति - अहंकार। यज्ञ होता है - पवित्र कर्म, अहंकार होता है- गंदा कर्म। अहंकार में आदमी प्रेम भी करेगा तो पवित्र नहीं होगा, गंदा संदा होगा। तो यज्ञ में कोई गलत काम नहीं हो, अहंकार नहीं हो, नहीं तो सब गड़बड़ होगा। अहंकार जहां कहीं भी होगा गड़बड़ ही होगी। यज्ञ में तो सेवा, शुद्धता व समर्पण हो, यही सबसे बड़ा तप है। वीरभद्र दक्ष प्रजापति के यज्ञस्थल पर पहुँच गए। वीरों में श्रेष्ठ वीर वही है जो अपने अहंकार का शीश काट दे, उसे गिरा दे। वही वीर है जिसने अपने अहंकार को जीत लिया, उसे गिरा दिया। वह सबसे कमजोर होता है जो अहंकारी होता है। अहंकारी जरा सी बात में चिढ़ जाता है, तिलमिला जाता है, सहन नहीं कर पाता। इसलिए गम्भीर होना चाहिए। गम्भीर आदमी में ताकत होती है। अहंकारी कमजोर होता है। वीरभद्र ने वहाँ जाकर, भगवान शिव के अपमान में, जिस जिस आदमी ने जिन जिन अंगों का इस्तेमाल किया था, उनके उन उन अंगों को तोड़ दिया। जिन्होंने दाँत चमकाए थे, उनके दाँत तोड़ दिए। जिन्होंने दाढ़ी मूंछ पर हाथ फेरा था, उनकी दाढ़ी नोंच ली, आँखें चमकाई थीं तो आँखें फोड़ दीं। जिन्होंने बाँहें फड़काई थीं तो उनकी भुजाएं उखाड़ दीं। दक्ष प्रजापति के सिर को काटकर यज्ञ में भस्म कर दिया। अहंकार पूर्वक जीवन रूपी यज्ञ करोगे तो जीवन इसी प्रकार नष्ट हो जाएगा।
Tuesday, April 14, 2009
वीरों में श्रेष्ठ वीरभद्र रखा .............
परीक्षित! यहाँ सतीजी का शरीर भस्म हो गया। रुद्रगणों ने जब यज्ञ में गड़बड़ी की तो भृगु ने उनको वहाँ से खदेड़ दिया। चार माह बाद नारद जी के द्वारा शिवजी को यह सब पता चला। अपनी पत्नी सती के भस्म हो जाने की खबर पर उनको बहुत बुरा लगा। उन्होंने अपनी जटा के एक बाल को जमीन पर पटक कर वीरभद्र को उत्पन्न किया। त्रिनेत्र धारी उस वीर के हजारों भुजाएं थीं, जो हजारों अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित थीं। शंकरजी की परिकृमा कर उसने झुककर शिव को नमन किया और आज्ञा माँगी। शंकर जी ने उसका नाम वीरों में श्रेष्ठ वीरभद्र रखा और कहा कि, "देखो हमारी प्रिया सती, दक्ष प्रजापति के द्वारा हमारे अपमान के कारण यज्ञ में ही भस्म हो गईं हैं। इसलिए इस दुष्ट यज्ञ करने वाले दक्ष प्रजापति के सिर को कलम कर दो, जो कोई भी उसका पक्ष ले उसका भी रक्तपात करदो।''
Sunday, April 12, 2009
सड़ा-गला, बासी, दुर्गधयुक्त, अपवित्र (संदूषित)भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख, प्रीति बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले, मन को प्रिय लगने वाले भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वे, खट्टे, लवण युक्त, अति गर्म, तीक्ष्ण रूखे, दाहकारक, भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं, जो दु:ख चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले हैं। अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त बासी, उच्छिष्ट, अपवित्र, भोजन तामस पुरुष को प्रिय होते हैं।)स्पष्टत: 'सात्त्विक पुरुष' को प्रिय लगने वाले भोजन में उन सभी भोज्य पदार्थों की गणना की गयी है जो मनुष्य को दीर्घायु, बुद्धि, आरोग्य व उत्साह प्रदान करते हैं। जिन्हें रसयुक्त, चिकने (दुग्ध-घृतादि)भोजन की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यहां इसका भी स्पष्ट उल्लेख है कि राजसी आहार में कड़वे, तीखे, चटपटे, भोज्य-पदार्थ आते हैं जो नाना प्रकार के रोगों, दुखों व भय को आंत्रण देने वाले हैं। 'तामसिक आहार' के अंतर्गत उन सभी त्याज्य भोज्य पदार्थ का वर्णन है जो निश्चित रूप से शरीर-हानि करने वाले हैं। सड़ा-गला, बासी, दुर्गधयुक्त, अपवित्र (संदूषित)भोजन कदापि ग्रहण करने योग्य नहीं है।
Saturday, April 11, 2009
हज के फ़राएन
हज एक ऐसी पूजा है, जिसमें शारीरिक क्षमता व आर्थिक क्षमता का होना अनिवार्य है। ये दोनों जिस किसी मुसलमान के पास हो, उसके लिए हज करना अनिवार्य है। कोशों में हज का अर्थ "किसी बड़े मक़सद का इरादा करना है।'' जिसके अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण कार्य महत्वपूर्ण समय में किए जाने होते हैं। उम्रभर में एक बार हर मुसलमान (मर्द हो या औरत ) को हज करना अनिवार्य है, पर इसके लिए भी कुछ नियम हैं कि किन लोगों पर हज फ़र्ज है- जो लोग ख़ुदा को खुश रखना चाहते हैं और जो हज के स्थान तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं। एक मुसलमान का बालिग़, आक़िल, आजाद होना और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना हज की अनिवार्य शर्तें हैं। अगर कोई शख्स अपाहिज या फालिज है या इतनी उम्र हो चुकी है कि (जईफी) बुढ़ापे के कारण सवारी पर बैठ नहीं सकता, ऐसे लोगों पर ये भी फजर् नहीं है कि अपने बदले किसी अन्य से हज करने के लिए कहें और स्वयं तो उन पर क़र्ज़ है ही नहीं। यदि कोई अन्धा है पर सवारी अर्थात् रुपया ख़र्च करने की क्षमता है, परन्तु उसे कोई साथ नहीं मिल पाता तो उस पर न तो हज की अनिवार्यता है, न अपने बदले किसी से हज करवाना। यदि महिला हज कर रही है तो उसके साथ उसके पति का होना या किसी महरम (वो शख्स जिससे निकाह होने वाला है, जो कि आक़िल (अक्ल वाला) बालिग़ होना अनिवार्य है। ) मनुष्य को हज पर जाने से पहले अपने कर्जों को चुका दिया जाना चाहिए, गुनाहों से तौबा की जाए, नीयत में मुहब्बत हो और अत्याचारों से दूर रहता हो, जिससे लड़ाई झगड़ा हो, उससे सफ़ाई कर ले, जो इबादतें रह गई हैं, उन्हें पूरा कर ले। ख़ुद को नुमाइश, अहंकार से दूर रखें, हलाल कमाई हो। किसी नेक आदमी को हमसफ़र बनाए ताकि जहाँ वह भटके, वह बताता रहे कि सही क्या है? इस्लाम के फ़र्ज़ नमाज , रोजा और जकात की भांति 'हज' भी अत्यन्त महत्वपूर्ण फ़र्ज़ है।
प्रस्तुति : डा- शगुफ्ता नियाज़
Monday, April 6, 2009
इज्जत चाहिए तो अपने घर और घरवाले का कहीं अपमान नहीं करना चाहिए
Thursday, April 2, 2009
नेता की बेटी किसी घर की बहू बने तो मुश्किल है।
Wednesday, April 1, 2009
वो उस शरीर में थीं ही नहीं।-----
उधर भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के भोजन को लात मार दी और चल पड़े विदुर चाचा के घर की ओर। दरवाजे के बाहर खड़े होकर दरवाजा खटखटाया। प्रभु जिस पर कृपा करते हैं ऐसे ही हौले से दरवाजा खटखटाते हैं। खट खट की आवाज से दरवाजा न खुला, तो जोर जोर से चिल्लाने लगे। चाची! चाची! दरवाजा खोलो, बड़ी जोर की भूख लगी है। विदुर की भार्या के कानों में ज्यों ही मोहन की आवाज पड़ी, वह सुध बुध खो बैठीं। होश नहीं रहा, गोविन्द की पुकार सुनकर। जल्दी जल्दी भागती हुई आईं और दरवाजा खोल दिया। उन्हें होश ही नहीं रहा कि वह भावावेश में अपने कपड़े पहनना ही भूल गईं । कपड़े तो तन पर हैं, और जब गोविन्द की पुकार हो, उनसे सामना हो, तो तन की ही सुधि नहीं तो तन के वसन की क्या? कन्हैया ने देखा कि चाची के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है, तो अपना पीताम्बर उनके ऊपर डाल दिया। पर चाची को तो उस समय होश ही नहीं था अपने शरीर का। वो उस शरीर में थीं ही नहीं। वहां तो बस भगवान का ध्यान था, सेवा का भाव, भक्ति का भाव, भावना पर ध्यान था - मेरे गोविन्द! मेरे प्रभु! जैसे जब कोई नदी सागर से मिलती है तो बेहिसाब गिरती है, वैसे ही जब कोई नम्र होता है तो बेहिसाब गिर जाता है। हाथ पकड़ लिया कन्हैया ने, और आसन पर बिठा दिया।