देखो भैया, मैं तो समझता था कि मेरे गाण्डीव की शक्ति है, अर्जुन की शक्ति है, परन्तु प्रभु श्री कृष्ण के जाने के बाद जब मैं द्वारिका वासियों को लेकर वापस आ रहा था न, तो राह में इकट्ठा होकर भीलों ने मुझसे द्वारिका वासियों को छीन लिया, लूट लिया उन्हें। मेरा गाण्डीव लकड़ी का, मिट्टी का गाण्डीव बनकर रह गया, क्योंकि वह शक्ति जो नहीं रही थी जिससे विजय श्री मिलती थी। शक्ति शरीर की नहीं है, कृष्ण की है। शक्ति बुद्धि की नहीं है, कृष्ण की है। जिससे शरीर चलता है, जिससे बुद्धि चलती है, वह शक्ति तो कृष्ण की है। लोग जड़ों को भूल जाते हैं, फूलों में अटक जाते हैं। फूल सुन्दर होते हैं तथा जड़ें कुरूप होती हैं। इसीलिए तो भगवान का स्मरण करने में कष्ट होता है। और जो संसार के भोग हैं, वे फूल हैं, उनके संग मर जाने को मिट जाने को जी करता है। इसीलिए तो आदमी आगे की सोचता है क्योंकि भोग के फूल हैं वहां पर। यदि उल्टा लौटकर जाकर देखे तो जड़ें हैं, ऊपर की तरफ हम भोग का चिन्तन करते हैं और जड़ों को भूल जाते हैं। जबकि शून्य में तो परमात्मा है।
Saturday, December 6, 2008
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