Wednesday, December 17, 2008

केशव! आपने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया।

केशव! आपके घुंघराले काले-काले बालों की लटें आपके चौड़े वक्षस्थल पर छाई बहुत सुन्दर दीखती थीं। धनुष की आकृति जैसी लम्बी-लम्बी आपकी भंवें, कमल की पंखुड़ियों के समान चौड़ी-चौड़ी पलकें, स्भग नासिका मंद-मंद मुस्कान जैसी दन्त पंक्ति, झील सी गहरी आँखें, साँवला शरीर, उस पर आपके लाल-लाल होठ जैसे नीले आकाश में सूर्योदय हो रहा हो। मेरे बाण आपके कवच को तोड़ रहे थे आपका कोई भी अंग प्रत्यंग, रोम-रोम ऐसा नहीं था जिस पर मेरे बाणों ने लक्ष्य न किया हो, घाव न दिया हो। उस समय आप अपने रथ से कूंद पड़े। आपने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया। अर्जुन आपके पीछे-पीछे कहता रहा था ''केशव! ठहरिये, गोविन्द! ठहरिये, जगदीश! ठहरिये-आपने ऐसी प्रतिज्ञा की है कि आप निःशस्त्र ही मेरे रथ का संचालन करेंगे। आप अपनी प्रतिज्ञा को भूल रहे हैं।'' आपने नहीं सुना।

अर्जुन ने आपके चरण पकड़ लिए पर आप अर्जुन दस कदम तक घसीटते हुए मेरी ओर दौड़े आए और वहाँ पड़े हुए रथ के पहिए को उठा कर उसे स्मरण करके आपने सुदर्शन चक्र बना लिया। ये राजा लोग आपको नहीं जानते क्योंकि आपका ये शरीर है वो ऐसे इन आँखों से नहीं दीखता, उसके लिए तो दिव्य चक्षु चाहिए। ये तो चर्म चक्षु है, चर्म दृष्टि है। जो रौद्र रूप आप विश्व का संहार करते समय धारण करते हैं, उसका मैंने दर्शन किया था फिर मैंने अपने धनुष-बाण रथ के पिछले हिस्से में डालकर आपकी स्तुति की थी। तब आप वापस लौटे थे, केशव।

भगवान श्री ड्डष्ण ने उन्हें अभयदान दिया फिर भगवान श्री ड्डष्ण के कहने पर भीष्म पितामह ने पाँचों महात्मा पाण्डवों तथा द्रौपदी को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का उपदेश दिया।

No comments: