Thursday, December 11, 2008

क्या वही सुन्दर है जो हमारी आँखों को जँचता है।

परीक्षित के साथ कैसे उनका संवाद हुआ। शुकदेव जी तो ज्यादा देर ठहरते ही नहीं हैं। गोधूलि जाती है उतनी ही देर ठहरते हैं। फिर उनका कैसे और क्या संवाद हुआ। आप हमें यह बताऐं तथा परीक्षित के जन्म, कर्म तथा सन्यास के बारे में बताऐं बड़ी जिज्ञासा हो रही है। शौनक जी की इस जिज्ञासा को सम्मान पूर्वक सूत जी स्वीकार करते हुए बोले हैं शौनक! परीक्षित का जन्म बतलाता हूँ तथा शुकदेव जी का कैसे उनसे संयोग हुआ यह मैं आपको बताता हूँ, यह बड़ी पवित्र कथा है ध्यान से सुनिए क्योंकि शरीरों से शरीरों का मिलना तो जानवरों का भी होता है जिमें प्राण नहीं है उन चीजों का भी मिलना और बिछड़ना होता है, लेकिन किसी संत तथा भक्त का मिलना यह संसार में विलक्षण घटना है। यह कहाँ मिलता है? पति-पत्नी बहुत मिलेगें संसार में लेकिन पत्नी जैसे भाव तथा पति जैसे जिज्ञासा, भाव, योग्यता ये कहाँ मिलता है? पिता-पुत्र बहुत हैं पर पिता पिता जैसा तथा पुत्र पुत्र जैसा कहाँ मिलता है? गुरु-गुरु जैसा शिष्य-शिष्य जैसा कहाँ होता है? गुरु-चेले तो बहुत हैं। बातें तो दुनियाँ में बहुत सी हैं लेने-देने की, मन की पर मन से परे उेसी बातें कहाँ हैं, कहाँ होता है सत्संग बहुत सुन्दर है ये और वह भी बहुत सुन्दर है जो इसे सुन्दर मानता है। सुन्दर है जिसका मन इसे सुन्दर मान कर ज्ञान की कथा से जड़ जाए वह भी सुन्दर हैं। यह बहस है पश्चिम के दार्शनिकों में कि सुन्दर क्या है? क्या वही सुन्दर है जो हमारी आँखों को जँचता है। यदि ऐसा है तो इस दुनियाँ में कुछ सुन्दर है ही नहीं, क्योंकि आज इन आँखों को जो सुन्दर लगता है अभी कल को कुछ हो गया तो उसे ही ये आँखें असुन्दर कहेंगी। अगर मन को जो जँचता नहीं सुन्दर है तो संसार में कुछ सुन्दर है ही नहीं। मन किसी को चाहता है और मरता है, मन किसी को नहीं चाहता और मारता है।

No comments: