Friday, November 28, 2008

अश्वत्थामा ने नीति, नियम, मर्यादाओं को तिलांजलि दी

और फिर उसने अपने पूरे के पूरे शरीर के रोंये-रोंये में उत्साह का संचरण किया, फिर विचार करने लगा कि अपने इस काम को अंजाम कैसे दूं? शौनक! वहीं पर जिस पेड़ के वह नीचे था, वहां पर रात में कौओं की बात-चीत को सुना। उसने देखा कि रात में कौये अपने से ताकतवर बाज के घोंसले में चले गये और उसके बच्चों को चट करके खा गये। अश्वत्थामा ने यहीं निश्चय किया, कि पाण्डव बाज की तरह से मुझसे ताकतवर हैं, लेकिन जिस तरह से बाजों की अनुपस्थिति में इन कौओं ने बाज के बच्चों का भक्षण कर लिया। इसी तरह से मैं भी अपने काम को अंजाम दूँ। महात्मा पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ में शल्य के शिविर में चले गये थे। तब वहाँ पर दुष्ट अश्वत्थामा ने सारे के सारे नीति, नियम, मर्यादाओं को तिलांजलि देकर उन पाण्डवों के शिविर में प्रवेश किया, जहां पर द्रोपदी के पाँच पुत्र अपने मुकुटों को सिर पर बाँधकर गहरी नींद में सो रहे थे। उसने उन पाँचों चमकते हुये राजकुमारों के सिरों को काट लिया। शौनक! फिर यहाँ पर उसने राजकुमारों के सिरों को दुर्योधन को भेंट किया। दुर्योधन की आत्मा चीत्कार कर उठी। उसका हृदय दहल उठा। उसकी आँखों से क्रोध और खून के आंसू बरसने लगे। उसने कहा कि अरे अधम ब्राह्मण! तूने ये क्या किया? मैंने तुझे अपने शत्रुओं के सिर कत्ल करके लाने के लिये कहा था, अपने वंश का नाश करने के लिए तुझे नहीं कहा था। कुरु के वंश में धृतराष्ट्र के अंश-वंश से तो कोई जिन्दा बचा नहीं लेकिन कुरु के वंश में पाण्डु के ये पौत्र तो थे। तूने तो हमारे महाराज कुरू के वंश के अन्तिम चिराग को समाप्त कर दिया। तू मेरी आंखों के सामने से चला जा। वो आत्मग्लानि में सिर धुनते हुये इस संसार से विदा हो गया।

No comments: