उस समय दुर्योधन के सामने, उसका गुरुपुत्र अश्वत्थामा अपने प्रिय स्वामी दुर्योधन को इस असहाय दशा में देख कर तिलमिला गया। अश्वत्थामा ने कहा है कि हे राजन! अगर आप समझते हैं कि आपका जीवन इस प्रतिशोध की अग्नि में नहीं गिरे, नहीं टूटे तो अभी युद्ध बन्द नहीं हुआ है, अभी घोषणा नहीं हुई है। आप भी जिन्दा हैं और आपकी सेना भी जिन्दा है। इसलिये युद्ध अभी बन्द नहीं है, युद्ध अभी चालू है, आप मेरा तिलक करें और मैं पाँचों पाँण्डवों के सिर कत्ल करके आपके चरणों में डाल दूँगा, तब आप चैन से मर सकेंगे। क्योंकि क्षत्रिय योद्धा का यदि शत्रु जीवित रहे और वो अपमान की आग में झुलसे तो उसको अच्छे लोकों की प्राप्ति नहीं होती। दुर्योधन ने अश्वत्थामा का तिलक किया, सेनापति बनाया। अश्वत्थामा विचार कर रहा था कि किस तरह से पांचों पाण्डवों के सिर कत्ल करके लाऊँ। शौनक! अंधेरी रात थी, अश्वत्थामा ने वहां बैठकर रुद्र भगवान का ध्यान किया। रुद्र- तमोगुणी शक्ति, रुद्र का ध्यान क्यों किया? तमोगुण से आदमी की बुद्धि काम करना छोड़ देती है, विचार करना छोड़ देती है। जैसे क्रोध आता है तो विचार विदा हो जाते हैं। काम करने की शक्ति विदा हो जाती है। इसलिए तमोगुण में पूरी शक्ति से काम कराने की जो शक्ति है, तमोगुण में जो कार्य कराने की, विचार कराने की, जो शक्ति है, उसको रुद्र कहते हैं। रुद्र माने रोदन। गति देने वाला जो इस जड़ प्रकृति को गति दे रही है, वो आत्मा ही रुद्र है।
Thursday, November 27, 2008
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