Sunday, November 9, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 19

सापत ताड़त पुरुष कहन्ता। विप्र पूजि अस गावहि सन्ता॥

इसलिए सन्त के तो चरण ही पकड़ने चाहिए। विरोध करने में तो विनाश है। ये जय विजय इन्हीं का पतन हुआ। बड़े समझने की बात है कि जब तक आदमी दुःखी होता है, तब तक तो ठीक रहता है पर जब उसे थोड़ा बहुत पूछा जाने लगे, मान मिले तभी वह भ्रष्ट होता है- जय और विजय। जय होने लगे कहीं पुजने लगे, तभी आदमी भ्रष्ट होने लगे। जय जयकार होने में ही भ्रष्ट होते हैं। जब तक कोई नहीं पूछता, तब तक आदमी सही काम करता है। जब नेता जी पुजने लगते हैं- जय-जय होने लगती है तो नेताजी बिकने लगते हैं। गलत काम करने लगते हैं। जहाँ पब्लिक ने उन्हें नेता मान लिया तो नेताजी पब्लिक के नाम पर बिकने लगते हैं चाहे पहले जब कोई नहीं पूछता था तो पब्लिक के लिए काम करते थे, पर नेता बन कर बिकने लगे। आज कल लोग करते क्या हैं? अगर किसी को बनना है तो हर जाति से वोट नहीं लेने। उस जाति के एक नेता को खरीद लिया। जैसे बघेलों का एक नेता है। उसे खरीद लिया दस बीस करोड़ में जाटों का ब्राह्मणों का एक नेता है, उसको खरीद लिया। वो जानते हैं कि ये एक नेता अपनी जाति के कितने ही आदमियों को leed कर रहा है तो उसे खरीद लो। आज कल आदमी नहीं बिक रहा है। आज कल बड़े-बड़े नेता बिक रहे हैं। जैसे ही जय हुई विजय हुई नेता जी धड़ाम से गिर गए। डेढ़ पैसे के नहीं रहे।

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