Sunday, November 9, 2008

श्रीमद भागवत कथा अंक 18

प्रश्न यह है कि ये हिरण्याक्ष हुआ कैसे? ये नेता भ्रष्ट हुए कैसे? एक बार सनकादि ऋषि भगवान के द्वार पर मिलने गए। बैकुण्ठ के सातवें द्वार पर पहुँचे। वहाँ के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें बच्चे जानकर रोक दिया और कहा कि वहाँ भगवान शयन कर रहे हैं और ये वहाँ जाकर अशान्ति करेंगे, उनके शयन में बाधा उत्पन्न करेंगे। अब सनकादि ऋषि को क्रोध आ गया और उनसे बोले कि तुम दोनों राक्षस हो क्योंकि जो भक्त और भगवान के मिलने में रोड़ा अटकाए, वह राक्षस ही होता है। जो भगवान और सन्त से विरोध करे, वह असुर होता है। जाओ, तुम राक्षस बनोगे। यहाँ रहने के लायक नहीं हो। जय विजय ने उनके चरण पकड़ लिए। सनकादि ऋषि बोले, "तीन जन्म तक तुम राक्षस बनोगे, ताकतवर बनोगे, तपस्वी बनोगे, मगर भगवान के हाथ से तुम्हारी मृत्यु भी होगी और चौथे जन्म में फिर यहाँ के द्वारपाल बनोगे।'' साधु क्रोध करे तो भी चरण पकड़ने में ही खैर है, साधु गाली दे, चाहे श्राप दे तो भी चरण पकड़ने में ही खैर है। साधु से तर्क और बराबरी नहीं करनी चाहिए, नहीं तो समझो नाश है, चाहे फिर वह त्रिलोकपति रावण ही क्यों न हो। विभीषण को अर्थात्‌ अपने छोटे भाई को लात मारी तो नाश हो गया उसका।

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