उधर भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के भोजन को लात मार दी और चल पड़े विदुर चाचा के घर की ओर। दरवाजे के बाहर खड़े होकर दरवाजा खटखटाया। प्रभु जिस पर कृपा करते हैं ऐसे ही हौले से दरवाजा खटखटाते हैं। खट खट की आवाज से दरवाजा न खुला, तो जोर जोर से चिल्लाने लगे। चाची! चाची! दरवाजा खोलो, बड़ी जोर की भूख लगी है। विदुर की भार्या के कानों में ज्यों ही मोहन की आवाज पड़ी, वह सुध बुध खो बैठीं। होश नहीं रहा, गोविन्द की पुकार सुनकर। जल्दी जल्दी भागती हुई आईं और दरवाजा खोल दिया। उन्हें होश ही नहीं रहा कि वह भावावेश में अपने कपड़े पहनना ही भूल गईं । कपड़े तो तन पर हैं, और जब गोविन्द की पुकार हो, उनसे सामना हो, तो तन की ही सुधि नहीं तो तन के वसन की क्या? कन्हैया ने देखा कि चाची के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं है, तो अपना पीताम्बर उनके ऊपर डाल दिया। पर चाची को तो उस समय होश ही नहीं था अपने शरीर का। वो उस शरीर में थीं ही नहीं। वहां तो बस भगवान का ध्यान था, सेवा का भाव, भक्ति का भाव, भावना पर ध्यान था - मेरे गोविन्द! मेरे प्रभु! जैसे जब कोई नदी सागर से मिलती है तो बेहिसाब गिरती है, वैसे ही जब कोई नम्र होता है तो बेहिसाब गिर जाता है। हाथ पकड़ लिया कन्हैया ने, और आसन पर बिठा दिया।
Wednesday, April 1, 2009
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