Thursday, April 2, 2009

नेता की बेटी किसी घर की बहू बने तो मुश्किल है।

सुलभा भगवान के लिए केले ले आईं। उन केलों को छीलकर कन्हैंया को देने लगीं। भावातिरेक में उन्हें होश ही नहीं रहा कि वे कन्हैया को केले के छिलके देती जातीं और गूदे को फेंकती जातीं। और गोविन्द...... बड़े चाव से उन छिलकों को खाए जा रहे थे। गोविन्द कुछ नहीं बोले, क्योंकि वहाँ शरीर नहीं था, होश नहीं था, बस भाव ही भाव था। गोविन्द नहीं देखते, कि उन्हे भक्त क्या दे रहा है, वह तो भाव देखते हैं।
गोविन्द मेरौ है, गोपाल मेरौ है....... श्री बांके बिहारी नन्द लाल मेरौ है॥
तो शंकर जी सती से कह रहे हैं, कि वहाँ पर (दक्ष प्रजापति के घर) भाव नहीं है। सती जी तो नेताजी की बेटी हैं। वो किसी की सुनती ही नहीं हैं। नेता जी किसी की नहीं सुनते और उनके बीबी बच्चे भी किसी की नहीं सुनते। अक्सर उनके भी दिमाग खराब हो जाते हैं। नेता की बेटी किसी घर की बहू बने तो मुश्किल है। ब्याह तो करेगी, मगर नेतागिरी करेगी, सेवा नहीं करेगी। पत्नी बनकर रहना उसके लिए मुश्किल है। पति को बंदी बनाना उसकी चौइस होती है। सती जी ने भी पति की बात नहीं मानी। तुनक करके चली गईं दक्ष प्रजापति के घर, उनके यज्ञ में। शंकर जी ने उनके साथ नंदी और रुद्र दोनों को भर भेज दिया।

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