Wednesday, April 22, 2009

सेवा, शुद्धता व समर्पण हो, यही सबसे बड़ा तप है

दक्ष प्रजापति - अहंकार। यज्ञ होता है - पवित्र कर्म, अहंकार होता है- गंदा कर्म। अहंकार में आदमी प्रेम भी करेगा तो पवित्र नहीं होगा, गंदा संदा होगा। तो यज्ञ में कोई गलत काम नहीं हो, अहंकार नहीं हो, नहीं तो सब गड़बड़ होगा। अहंकार जहां कहीं भी होगा गड़बड़ ही होगी। यज्ञ में तो सेवा, शुद्धता व समर्पण हो, यही सबसे बड़ा तप है। वीरभद्र दक्ष प्रजापति के यज्ञस्थल पर पहुँच गए। वीरों में श्रेष्ठ वीर वही है जो अपने अहंकार का शीश काट दे, उसे गिरा दे। वही वीर है जिसने अपने अहंकार को जीत लिया, उसे गिरा दिया। वह सबसे कमजोर होता है जो अहंकारी होता है। अहंकारी जरा सी बात में चिढ़ जाता है, तिलमिला जाता है, सहन नहीं कर पाता। इसलिए गम्भीर होना चाहिए। गम्भीर आदमी में ताकत होती है। अहंकारी कमजोर होता है। वीरभद्र ने वहाँ जाकर, भगवान शिव के अपमान में, जिस जिस आदमी ने जिन जिन अंगों का इस्तेमाल किया था, उनके उन उन अंगों को तोड़ दिया। जिन्होंने दाँत चमकाए थे, उनके दाँत तोड़ दिए। जिन्होंने दाढ़ी मूंछ पर हाथ फेरा था, उनकी दाढ़ी नोंच ली, आँखें चमकाई थीं तो आँखें फोड़ दीं। जिन्होंने बाँहें फड़काई थीं तो उनकी भुजाएं उखाड़ दीं। दक्ष प्रजापति के सिर को काटकर यज्ञ में भस्म कर दिया। अहंकार पूर्वक जीवन रूपी यज्ञ करोगे तो जीवन इसी प्रकार नष्ट हो जाएगा।

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