Saturday, March 21, 2009

'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है

सब इंद्रियों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर कर, प्राणों को सहस्रार में पहुंचाकर ऊंकार का उच्चारण ही ध्यान की सम्यक विधि है। प्रणव शब्द का अनवरत उच्चारण व मन का उस शब्द में तादात्म्यीकरण मनुष्य को अद्भुत शांति व सुख के साम्राज्य में ले जा सकता है। आज यह तो सर्वविदित ही है कि 'ध्यान' से मनुष्य में अद्भुत ऊर्जा का संचरण होता है, उसकी क्षमताओं का पुनर्नवीनीकरण होता है और कार्यक्षमता का वर्धन होता है। गीता हमें मानवता का पाइ भी पढ़ाती है। आल समूचे विश्व में जाति व सम्प्रदायगत वैमनस्य का जहर व्याप्त है। सर्वत्र घृणा, अहंकार, नफरत, स्वार्थपरता का तांडव है ऐसे में 'गीता' का यह उद्धोष मानव-मन को सचेत कर देता है -

विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गविहस्तिनि।

शुचि चैव स्वपाके च पंडिता: समदर्शिनि:॥

प्रबोधित, प्रचेतस मानस से सबसे पहली अपेक्षा तो यह की जाती है कि वह विनम्र हो, अहंकारी नहीं। साथ ही वह ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते, चांडाल - आशय यह कि सर्वदा सब प्राणियों में समान भाव रखें। जिसे कबीर 'कीरी कुंजर में रह्या समाई' कहकर, तुलसी 'सीय राम मैं सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी' कहकर व बाद के कवि 'हर देश में तू, हर वेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है' कहकर युग की मांग के अनुकू ल साम्प्रदायिक सद्भाव का अलख जगाने का सत्प्रयास कर रहे थे उस उदात्त भाव का निरूपण 'गीता' में बहुत पहले हो चुका था। वह तो सब प्राणियों में अपने समान भाव रखने का सदुपदेश देती है -

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