गीता जीवन जीने की एक कला है। आज के आपाधापी, उलझन व तनाव भरे जीवन में मनुष्य मात्र को एक स्वस्थ सोच, सम्यक दृष्टि और आशावादी संदेश प्रदत्त करती हुई आदि गुरु शंकराचार्य जी के 'भगवद्गीता किंचित धीता' के उद्धोषा को अक्षरश: चरितार्थ करती है। मृत्यु प्रत्येक जीवन का अनिवार्य सत्य है और जीवन की राह अत्यन्त जटिल। 'मृत्यु' के सच को बिना किसी घबराहट, अवसाद और निराशा के स्वीकार करते हुये जटिल जीवन को सरलता, निर्लिप्तता, कर्मठता, सजगता, जिजीविषा व समस्त उत्तरदायित्वों को धैर्यपूर्वक वहन करते हुये किस समर्पण व सादगी के साथ जीना है - यह कला सिखाती है गीता। गीता हमें सिखाती है - तन से, मन से, स्वस्थ, सबल व संतुलित होकर जीने का तरीका। क्या यह आज के मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता नहीं है?गीता भक्ति, ज्ञान, कर्म का अद्भुत समन्वय है। मनुष्य सद व विवेकपूर्ण चिंतन के द्वारा उत्कृष्ट कर्म करता हुआ समाज के लिए कितना उपयोगी हो सकता है - इसके सूत्र हमें 'गीता' में सहजता से मिल जाते हैं। सर्वप्रथम मैं 'स्वस्थ शरीर' पर विचार करूंगी। 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार है और स्वस्थ मन ही सकारात्मक उर्जा के माध्यम से सशक्त समाज का निर्माण कर सकता है। गीता में 'शरीर संशुद्धि' के सर्वप्रमुख कारण 'आहार-नियमन' पर सूक्ष्मता से विचार हुआ है। आहार का मन पर प्रभाव असंदिग्ध है। अशुद्ध आहार 'मन' की शांति तरंगों में विक्षोभ उत्पन्न करता है।
Saturday, March 14, 2009
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