Thursday, August 6, 2009

लोकेष्णा में छोड़ा तो क्या छोड़ा है?

एक राजा बाबा जी हो गया। कुछ खाता पीता नहीं, नंगा घूमता, किसी से नहीं बोलता, सोने के लिए बिस्तर भी नहीं बिछाता। तकलीफ हो गई, सूख कर काँटा सा शरीर हो गया पाँव में घाव हो गए, खराब शकल हो गई। महान सन्त का शिष्य था। उन्होंने कहा ये तू क्या कर रहा है? अति पर जी रहा है। पहले राजा था तो भोगों की अति करी कि जिसके पास जितने भोग होंगे वो उतना ही बड़ा राजा है। कौन बड़ा गृहस्थ है? जिसके पास भोग है। भोगी ही बड़ा गृहस्थ है। जिसके पास भोग कम है, वह गरीब है। बिल्कुल दरिद्र है जिसके पास भोग है ही नहीं। अति में तब भी जी रहे थे अब भी अति में जी रहे हो। तब भी अहंकार के लिए जी रहे थे, अब भी अहंकार के लिए जी रहे हो। जूते नहीं पहनेंगे कि लोग कहें"अरे वो भगत जी जो जूते भी नहीं पहनते।'' ये सुरुचि है- भीतर छुपी हुई वासना। जूते क्यूँ नहीं पहनते? जूते तुम्हारे धरम को खा जाऐंगे? जूते पहनने से तुम्हारा भजन खराब होता है क्या? अहंकार के लिए जूते छोड़ दिए। खाना छोड़ दिया। क्यों? कि लोग कहें वो वाले बाबा जो अन्न नहीं खाते कूटू ही खाते हैं। ये अहंकार ही है- रुचि है ये। लोकेष्णा में छोड़ा तो क्या छोड़ा है? न सुनीति है, न ध्रुव है।

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