Wednesday, December 31, 2008

नव वर्ष मंगलमय हो


खट्टे मीठे अनुभवों के साथ
गुज़री हुयी साल को अलविदा।
आओ नए साल का स्वागत करें।
दिव्या
रुद्र की कृपा सब पर बरसती रहे.

Monday, December 29, 2008

जिन्दगी क्या है? कम्पन है।


जानते हो दुनियाँ क्या है? एक कम्पन है। जिन्दगी क्या है? कम्पन है। कम्पन है तो जीवन है, नहीं तो जीवन खत्म हो गया, कहते हैं- कमंक हो गया। तो कम्पन ही जीवन है। कोई भी चीज खत्म नहीं होती। कम्पन से उत्पन्न होती है, कम्पन से ही समाप्त हो जाती है। कम्पन हर समय, हर जगह है। कम्पन ही धरती में, गगन में, वायु में, खाली स्थान में भी है। इसलिए खाली जगह छोड़ना धर्म है। जगह को भरना धर्म नहीं है।

Saturday, December 27, 2008

रुद्र बोलते हैं- कम्पन को, ध्वनि को।

भटके हम भगवान से नहीं, अपने फजर्+ से भटक गए हैं। हम भगवान से दूर नहीं हुए हैं, अपने-अपने फजर्+ को भूल गए हैंऋ इसलिए उससे दूर हो गए ऐसा अनुभव करते हैं। बस फजर्+ को पकड़ लें, वो तो हैं ही हमारे पास में। अपने कर्म को करो, भगवान दूर नहीं हैं। ब्रह्मा ने तप किया। भगवान ने उनके हृदय में दर्शन देकर ब्रह्मा को आदेश दिया कि मेरा ध्यान करते हुए सृष्टि की रचना करो। ब्रह्मा ने अविद्यादि पाँच वृत्तियों को उत्पन्न किया- सनकादि ऋषि उत्पन्न किए, जो सन्यासी हो गएऋ क्रोध उनके भौंहों के बीच से उत्पन्न हुआ, लाल और नीले रंग के रूप मेंऋ जिससे रुद्र भगवान प्रकट हुए। रुद्र बोलते हैं- कम्पन को, ध्वनि को।

Thursday, December 25, 2008

भगवान तो दूर हैं ही नहीं।


टेसू बनना.... टेसू की गति को छोड़ दिया ब्रह्मा ने। आकाशवाणी हुई, ''तप करो।'' तप..... तप क्या है? संयम और नियम पूर्वक दूसरे का हित साधन करना, यही तप है। किसी को भी कष्ट न देना, ही तप है।

'परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥'

"मुझे क्या करना है?'' इसको विछार करो। एक बच्चा पढ़ता है तो उसे यही सोचना, कि ÷÷मुझे पढ़ने के लिए क्या करना है।'' पत्नी है, तो उसे सोचना चाहिए कि "मुझे क्या करना है पत्नी के रिश्ते से'' और पति को भी ऐसा ही करना चाहिएऋ एक साधु को साधु का कर्त्तव्य कर्म करना चाहिए। अपने-अपने कर्त्तव्य को पकड़ लें तो भगवान तो दूर हैं ही नहीं।

Wednesday, December 24, 2008

न "हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा'' इन्सान की औलाद है, इन्सान बनेगा

÷मैं' कौन हूँ, इसको जानने के लिए, पहले यह जानो कि ÷÷मुझे क्या करना है।'' भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से यही कहा कि तुझे क्या करना है यह पकड़, ज्यादा ऊँचा-नीचा मत बन, मैं चाचा हूँ, मैं भाई हूँ, भतीजा हूँ, ब्रह्म हूँ, जीत हूँ, हार हूँ, ईश्वर हूँ, बंधन में हूँ, मुक्त हूँ, ये बेकार की बात छोड़ दे। तुझे क्या करना है ये देख।

परन्तु आज आदमी यही भूल गया है, कि "उसका कर्त्तव्य क्या है'' वह क्या करे? बस ये पकड़ के बैठा है कि "मैं कौन हूँ?'' मंत्री है तो मंत्री बना बैठा है, टेसू की तरह। प्रिंसिपल है तो प्रिंसिपल बना बैठा है, टेसू की तरह। पिता है, तो पिता का टेसू बना बैठा है, अफसर है तो अफसर का। हर आदमी जो है उसका टेसू बना बैठा है। क्या करना हैऋ ध्यान ही नहीं। तो क्या करना है? यह जिस दिन ध्यान आएगा उस दिन दुनियाँ में टेसू के गीत बन्द हो जाएंगे। उस दिन इन्सान, इन्सान बन जाएगा। फिर न "हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा'', क्योंकि हिन्दू मुस्लिम क्या है? टेसू ही तो हैं। फिर तो बस "इन्सान की औलाद है, इन्सान बनेगा।''

Tuesday, December 23, 2008

भागवत कहती है, "पहले अनुशासन सीखो।''

फिर अदृष्ट परमात्मा ने, उसके तीन भाग किए अधिदैव ;आधारद्ध, अध्यात्म ;शूक्ष्म और अधिभूत ;स्थूलद्ध। फिर भी सृष्टि नहीं हुई। तदुपरांत उनकी नाभि से कमल पर ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा सैकड़ों दिव्य तक, कमल की कर्णिका को पकड़े, नाल को पकड़े भटकता रहा, पर जान नहीं पाया कि "मैं कौन हूँ?''

देखो, वेदान्ती कहते हैं कि पहले ये जानो कि "मैं कौन हूँ''? भागवत्‌ कहती है, कि "तुम ये जान ही नहीं सकते कि तुम कौन हो''। जब जान ही नहीं सकते "मैं'' को तो क्या करोगे? बस चुप बैठ जाओ। योग कहता है ÷÷अथ योगानुशासनम्‌'' अनुशासन सीखो। वेदान्ती यदि अनुशासन करता नहीं, जीवन में संयम-नियम है नहीं, इन्द्रियाँ कहीं हैं, मन कहीं और मस्तिष्क कहीं और, तो ब्रह्मज्ञानी कहाँ से हो गया? अनुभव कहाँ से हो गया? कहाँ से ज्ञान होगा? इसलिए भागवत कहती है, "पहले अनुशासन सीखो।''

Sunday, December 21, 2008

परमात्मा की इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है

ज+र्रे-ज+र्रे में परमात्मा। ज+र्रा-ज+र्रा भी परमात्मा। "रूह-ए-रब, रब-ए-खु+दा''। उस परमात्मा ने संकल्प किया- इच्छा की, वह इच्छा या स्वभाव ही प्रकृति है - इसमें विकार हुआ- वह विकार ही सृष्टि है। परमात्मा के, सतोगुणी अहंकार से मन, दस इंद्रियों के देवता, रजोगुणी अहंकार से पाँच प्राण, ५ ज्ञानेन्द्रिय तथा ५ कर्मेन्द्रिय- तामसी अहंकार से पंच तन्मात्रा फिर उनसे पंचमहाभूत। एक-एक से दस बने और उत्तरोत्तर गुणात्मक रूप से बढ़ते गए। उस अदृष्ट ने इन्हें जोड़ दिया और पचास करोड़ योजन का एक अण्डा बन गया। उसमें ब्रह्म ने प्रवेश किया। इसलिए इसे कहते हैं ब्रह्माण्ड। विस्तार वाला था इसलिए इसे वृहद् अण्ड भी कहते हैं। खगोल शास्त्री धरती का प्रमाण पचास करोड़ योजन का बताते हैं। विज्ञान तो ये आज का है। ये तो आज गणना कर रहे हैं। श्रीमद् भागवत तो इक्यावन सौ वर्ष पुरानी है। दुनियाँ ने जो कुछ भी लिखा है। हमारे वेदों और पुराणों से सीखा है। मुहर अपनी-अपनी लगाई है। चाहे न्यूटन हो, चाहे डाल्टन हो, चाहे आइस्टीन हो, ईसा हो, चाहे मूसा हो, चाहे कोई और हो। सबने यहीं से सब कुछ सीखा पर उस पर अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए लेबल अपने-अपने लगा दिए।

Friday, December 19, 2008

सर्व खलु इदं ब्रह्म।

जब भी बताने वालों ने बताया कि ये परमात्मा जगत रूप में कैसे दिखा? जैसे चिंगारी और आग क्या अलग-अलग हैं? नहीं! फिर भी आग चिंगारी के रूप में दिखती है। जैसे-जल और लहर दो हैं क्या? नहीं हैं न! फिर लहर क्यूँ दिखती हैं। ऐसे ही, "है परमात्मा ही परमात्मा'' फिर भी जगत दीखता है। जैसे पानी से लहर पैदा होती है पर अलग दिखती है। जैसे आग से चिंगारी पैदा होती है फिर भी अलग दिखती है। ऐसे ही जगत परमात्मा से उत्पन्न होकर अलग दिखता है लेकिन कुछ अलग नहीं हुआ। पानी ही पानी है, आग ही आग है, कुछ अलग नहीं है। ऐसे ही परमात्मा ही परमात्मा है, जगत अलग नहीं है।
सदैव सौम्य इदं अग्र आसीत। सर्व खलु इदं ब्रह्म। नेह ना नास्ति किंचन।

Wednesday, December 17, 2008

केशव! आपने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया।

केशव! आपके घुंघराले काले-काले बालों की लटें आपके चौड़े वक्षस्थल पर छाई बहुत सुन्दर दीखती थीं। धनुष की आकृति जैसी लम्बी-लम्बी आपकी भंवें, कमल की पंखुड़ियों के समान चौड़ी-चौड़ी पलकें, स्भग नासिका मंद-मंद मुस्कान जैसी दन्त पंक्ति, झील सी गहरी आँखें, साँवला शरीर, उस पर आपके लाल-लाल होठ जैसे नीले आकाश में सूर्योदय हो रहा हो। मेरे बाण आपके कवच को तोड़ रहे थे आपका कोई भी अंग प्रत्यंग, रोम-रोम ऐसा नहीं था जिस पर मेरे बाणों ने लक्ष्य न किया हो, घाव न दिया हो। उस समय आप अपने रथ से कूंद पड़े। आपने अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ दिया। अर्जुन आपके पीछे-पीछे कहता रहा था ''केशव! ठहरिये, गोविन्द! ठहरिये, जगदीश! ठहरिये-आपने ऐसी प्रतिज्ञा की है कि आप निःशस्त्र ही मेरे रथ का संचालन करेंगे। आप अपनी प्रतिज्ञा को भूल रहे हैं।'' आपने नहीं सुना।

अर्जुन ने आपके चरण पकड़ लिए पर आप अर्जुन दस कदम तक घसीटते हुए मेरी ओर दौड़े आए और वहाँ पड़े हुए रथ के पहिए को उठा कर उसे स्मरण करके आपने सुदर्शन चक्र बना लिया। ये राजा लोग आपको नहीं जानते क्योंकि आपका ये शरीर है वो ऐसे इन आँखों से नहीं दीखता, उसके लिए तो दिव्य चक्षु चाहिए। ये तो चर्म चक्षु है, चर्म दृष्टि है। जो रौद्र रूप आप विश्व का संहार करते समय धारण करते हैं, उसका मैंने दर्शन किया था फिर मैंने अपने धनुष-बाण रथ के पिछले हिस्से में डालकर आपकी स्तुति की थी। तब आप वापस लौटे थे, केशव।

भगवान श्री ड्डष्ण ने उन्हें अभयदान दिया फिर भगवान श्री ड्डष्ण के कहने पर भीष्म पितामह ने पाँचों महात्मा पाण्डवों तथा द्रौपदी को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का उपदेश दिया।

Sunday, December 14, 2008

उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध चल रहा था

उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध चल रहा था. तथा आपने प्रतिज्ञा की थी कि मैं युद्ध में अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं करुँगा। जिस दिन मुझे कौरव सेना का सेनापति बनाया जा रहा था उसी दिन मैंने प्रतिज्ञा की थी कि अगली सुबह होने वाले युद्ध में मैं यदि आपको अस्त्र-शस्त्र धारण न करवा दूँ तो शान्तनु तथा गंगा का पुत्र नहीं कहलाऊँगा। आज जो न हरि शस्त्र पहाऊँ। तो ला जूँ गंगा जननी को शान्तनु सुत न कहाऊँ॥

सूरदास जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। सवेरा हुआ युद्ध प्रारम्भ हुआ तो मैंने अपने सारथी को निर्देश दिया कि जहाँ कहीं भी कृष्ण हों वहीं रथ का संचालन कर ले चलो मुझे आप उन्हीं से युद्ध करना है। महाभयानक युद्ध हो रहा था, चारों ओर भेरियाँ बज रहीं थी, लाश पर लाश गिर रही थीं। वीभत्स! लेकिन मेरी आँखें तो उस महावीभत्स दृष्य के बीच आपको ढूढ़ रही थीं और आप जब मुझे दिखे तो मेरे तरकश से निकला एक-एक तीर धनुष की प्रत्यन्चा पर से होकर आपके कवच को लक्ष्य बनाकर उसे छिन्न-भिन्न करने लगे।

Saturday, December 13, 2008

सुदर्शन चक्र है माया से और भय से बचाने वाला है

याहि याहि माम्‌ हा योम्य तेइते जगत्‌पते नायं तु मयम्‌ पश्चयते, यत्र भक्त्यु परस्परा। ये तब भगवान्‌ श्री ड्डष्ण ने उनके गर्भ में प्रवेश करके सुदर्शन चक्र द्वारा उनके गर्भ की रक्षा की थी। ये जो सुदर्शन चक्र है माया से और भय से बचाने वाला है इसलिए जब कभी भी संकट होतो सुदर्शन चक्र धारी भगवान का स्मरण करने से ध्यान करने से शान्ति मिलती है। इसको स्मरण करने का अभ्यास करना चाहिए और वहीं पर भगवान श्याम सुन्दर कुछ दिन और भी ठहरे। शौनक! इधर भगवान श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के मैदान में जहाँ भीष्म पितामह बाणों की शैया पर पड़े हुए भगवान श्रीकृष्ण को स्मरण कर रहे हैं - वह कहीं आ जा नहीं सकते हैं बस भगवान को स्मरण करते रहते हैं, आँखों से आँसू निकलते हैं। भगवान उधर ही पाँड़वों, )षि-मुनि, ब्रात्मणों तथा द्रोपदी के साथ पहुँचे। भीष्म पितामह गदगद होकर बोले आइए केशव! जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्म स्थान कमल उत्पन्न हुआ, आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। आपने जैसे दुष्ट केस के द्वारा कैद तथा शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी उसी प्रकार मेरी तथा मेरे पौत्रों की भी आपने बार-बार रक्षा की है।

Friday, December 12, 2008

सत्य क्या है? जो सबको अच्छा लगे जो सर्वहितकारी हो।

हमारे यहाँ कालिदास जी ने कहा है अभिज्ञान शाकुन्तलम्‌ में ÷सत्यम्‌ शिवम्‌ सुन्दरम्‌' सत्य क्या है? जो सबको अच्छा लगे जो सर्वहितकारी हो। इसमें तुम्हारे मन की नहीं चलेगी क्योंकि ज+रुरी नहीं है जो तुम्हारे मन को अच्छा लगे वही तुम्हारे लिए अच्छा हो। अच्छा क्या है? जिसमें तुम्हारा हित हो। जो इस भगवान की कथा को सुन्दर मानता है वही मन सुन्दर है पर जो इसे सुन्दर नहीं मानता, जो इधर उधर की मन मानी चीजों वह तो खुद ही बेकार गन्दा है क्योंकि गटर के पानी में खुशबू कैसे आ सकती है? तो उसके लिए कोई सुन्दर कैसे हो सकता है। संसार की चीजों को चाहने वाले मन के लिए तो कुछ सुन्दर हो ही नहीं सकता। . . . . . . इसीलिए तो मैं ये सत्संग तुम्हें सुना रहा हूँ, यह बहुत सुन्दर है हर किसी को इसे पढ़ना चाहिए था तथा पढ़ने के साथ-साथ इस पर विचार करके हृदयंगम करना चाहिए था। महाभारत के यु( के बाद में जब अश्वथामा के ब्रह्मस्त्र से उत्तरा का गर्भ क्षीण हो रहा था तब वह व्याकुल होकर रोती बिलखती भगवान श्री कृष्ण के चरणों में आई और कहने लगी ''भगवान्‌ चाहे मेरी मृत्यु हो जाए पर मेरे गर्भ में पल रहा इस वंश का अन्तिम चिराग रौशन रहे।''

Thursday, December 11, 2008

क्या वही सुन्दर है जो हमारी आँखों को जँचता है।

परीक्षित के साथ कैसे उनका संवाद हुआ। शुकदेव जी तो ज्यादा देर ठहरते ही नहीं हैं। गोधूलि जाती है उतनी ही देर ठहरते हैं। फिर उनका कैसे और क्या संवाद हुआ। आप हमें यह बताऐं तथा परीक्षित के जन्म, कर्म तथा सन्यास के बारे में बताऐं बड़ी जिज्ञासा हो रही है। शौनक जी की इस जिज्ञासा को सम्मान पूर्वक सूत जी स्वीकार करते हुए बोले हैं शौनक! परीक्षित का जन्म बतलाता हूँ तथा शुकदेव जी का कैसे उनसे संयोग हुआ यह मैं आपको बताता हूँ, यह बड़ी पवित्र कथा है ध्यान से सुनिए क्योंकि शरीरों से शरीरों का मिलना तो जानवरों का भी होता है जिमें प्राण नहीं है उन चीजों का भी मिलना और बिछड़ना होता है, लेकिन किसी संत तथा भक्त का मिलना यह संसार में विलक्षण घटना है। यह कहाँ मिलता है? पति-पत्नी बहुत मिलेगें संसार में लेकिन पत्नी जैसे भाव तथा पति जैसे जिज्ञासा, भाव, योग्यता ये कहाँ मिलता है? पिता-पुत्र बहुत हैं पर पिता पिता जैसा तथा पुत्र पुत्र जैसा कहाँ मिलता है? गुरु-गुरु जैसा शिष्य-शिष्य जैसा कहाँ होता है? गुरु-चेले तो बहुत हैं। बातें तो दुनियाँ में बहुत सी हैं लेने-देने की, मन की पर मन से परे उेसी बातें कहाँ हैं, कहाँ होता है सत्संग बहुत सुन्दर है ये और वह भी बहुत सुन्दर है जो इसे सुन्दर मानता है। सुन्दर है जिसका मन इसे सुन्दर मान कर ज्ञान की कथा से जड़ जाए वह भी सुन्दर हैं। यह बहस है पश्चिम के दार्शनिकों में कि सुन्दर क्या है? क्या वही सुन्दर है जो हमारी आँखों को जँचता है। यदि ऐसा है तो इस दुनियाँ में कुछ सुन्दर है ही नहीं, क्योंकि आज इन आँखों को जो सुन्दर लगता है अभी कल को कुछ हो गया तो उसे ही ये आँखें असुन्दर कहेंगी। अगर मन को जो जँचता नहीं सुन्दर है तो संसार में कुछ सुन्दर है ही नहीं। मन किसी को चाहता है और मरता है, मन किसी को नहीं चाहता और मारता है।

Monday, December 8, 2008

हमारे दिमाग में कोई क्लेष होता है, तो हम कलियुग में हैं


शौनक! परीक्षित ने जब सुना कि मेरे राज्य में कलियुग आ गया है तो उन्होंने उसका दमन और शमन करने के लिए चतुरंगिनी सेना तैयार की। उसे लेकर उन्होंने कुरु जांगल नामक प्रांत में जहां वह ठहरा था वहां प्रस्थान किया। कुरु जांगल- कुरु माने करना, जब हम कर्म करते हैं। और जांगल अर्थात अहंकार। हम कर्म करते हैं तो अहंकार को लेकर, मैं को लेकर या लक्ष्य को लेकर करते हैं। लेकिन जब कुछ भी दिमाग में नहीं रहता, बस शून्य होता है, उस समय जो क्रिया होती है तब क्लेष शांत होता है। तो रास्ते में उन्होंने देखा कि एक पैर वाला बैल रो रहा है और उसके पास में एक गाय भी रो रही है। उन्होंने बैल से पूछा कि भाई, तुम कौन हो? तो बैल बोला कि, 'मैं धर्म हूं और यह धरती है।'' परीक्षित बोले, 'तुम कैसे धर्म हो? मैंने तो सुना है कि धर्म के चार पांव होते हैं, पर तुम्हारा तो एक ही है।'' यह कहकर परीक्षित हंसने लगे। बैल बोला हां, 'सत्य बात है, पर कलियुग में तो मेरा बस यही एक पैर बचा है। बाकी तीन पांव, चरण तो खत्म हो गए हैं। माने पिचहत्तर प्रतिशत धर्म तो कलियुग में समाप्त हो गया। कलियुग का अर्थ ये मत समझना कि जो समय चल रहा है। कलियुग का अर्थ है कि जब हमारा दिमाग बेचैन होता है, जब हमारे दिमाग में कोई क्लेष होता है, तो हम कलियुग में हैं ओर हमारा दिमाग जब शांति में है तो हम सतयुग में हैं। देखना ये है कि हमारा मन, हमारा दिमाग किस युग में है। चौबीस घण्टे में चार युग बदल जाते हैं। दिन की बात करें तो इसके चार प्रहर चार युग हैं। भोर का, सुबह का समय सतयुग है, जब सब शान्त होता है। दोपहर त्रेता है, शाम को द्वापर और रात्रि में कलियुग। जब मन की मनमानी चलती हो, क्लेष हो.....................

Saturday, December 6, 2008

जब मन को कुछ नहीं चाहिए तो क्लेष मरता है।

ये जो बेचैनी है, सभी को परेशान करती है। चाहे सम्राट हो या गरीब हो। इस बेचैनी को कैसे मारा जाए, इसकी कथा है। इस बेचैनी को दूर करना हर कोई नहीं चाहता है। तुम सोच रहे होगे कि हम चाहते हैं, कि हमारी बेचैनी दूर हो जाए। नहीं चाहते। तुम चाहते हो कि हमारा नाम हो और हमारे पास दाम हो, बस। शान्ति से रहना नहीं चाहता कोई। मन माने रहना चाहते हैं। अगर शान्ति से रहना चाहे कोई तो मन को मार करके रहेगा। मन की मान करके नहीं चलेगा। तुम मन की ही मानते हो और मन को ही तानते हो। और जो क्लेष को चाहेगा वह मन की मान कर रहेगा। मन को मारेगा नहीं, उसको बढ़ावा देगा। राजा होकर क्लेष को मारने चलो।

राजा माने मन जब पूरा हो जाए। अब मन पूरा हो गया। अब मन में इच्छा नहीं रही। अब तक तो मन गुलाम था, नौकर था, भटकता था। अब मन राजा हो गया। अब कुछ भी ऐसा नहीं रहा जो उसके पास नहीं। अब उसके पास सबकुछ है। मन में जब कोई इच्छा नहीं रह जाती तब क्लेष मरता है।... और जब तक मन में कोई इच्छा है तब तक शान्ति की बात करना बेमानी बात है। सुन्दर प्रसंग है। जब मन को कुछ नहीं चाहिए तो क्लेष मरता है।

इंसान पागल की तरह बेतहाशा भाग रहा है।


उन्होंने यहां पर महात्मा का वेश धारण किया। राजसी वस्त्रों और मुकुट को उतार कर परीक्षित को राज्य दिया। द्रोपदी को साथ लिया, मथुरा में भगवान श्री कृष्ण के पुत्र प्रदुम्न, उनके पुत्र अनिरुद्ध और उनके एकमात्र पुत्र बज्रनाभ थे, उनको मथुरा का राज्य दिया। फिर सन्यास लेकर उन्होंने उत्तराखण्ड में द्रोपदी सहित स्वर्ग को प्राप्त किया, परमपद को प्राप्त किया।

शौनक! हम सब सोचते हैं कि हम अपने लिए या अपनों के लिए जी रहे हैं परन्तु ऐसा नहीं है। हम न अपने लिए जी रहे हैं और न किसी और के लिए जी रहे हैं। बस मन में एक बैचेनी है, एक तृष्णा है, एक भटकन है, एक पागलपन है, एक चाह है, जिसके पीछे इंसान पागल की तरह बेतहाशा भाग रहा है।

शक्ति बुद्धि की नहीं है, कृष्ण की है।

देखो भैया, मैं तो समझता था कि मेरे गाण्डीव की शक्ति है, अर्जुन की शक्ति है, परन्तु प्रभु श्री कृष्ण के जाने के बाद जब मैं द्वारिका वासियों को लेकर वापस आ रहा था न, तो राह में इकट्ठा होकर भीलों ने मुझसे द्वारिका वासियों को छीन लिया, लूट लिया उन्हें। मेरा गाण्डीव लकड़ी का, मिट्टी का गाण्डीव बनकर रह गया, क्योंकि वह शक्ति जो नहीं रही थी जिससे विजय श्री मिलती थी। शक्ति शरीर की नहीं है, कृष्ण की है। शक्ति बुद्धि की नहीं है, कृष्ण की है। जिससे शरीर चलता है, जिससे बुद्धि चलती है, वह शक्ति तो कृष्ण की है। लोग जड़ों को भूल जाते हैं, फूलों में अटक जाते हैं। फूल सुन्दर होते हैं तथा जड़ें कुरूप होती हैं। इसीलिए तो भगवान का स्मरण करने में कष्ट होता है। और जो संसार के भोग हैं, वे फूल हैं, उनके संग मर जाने को मिट जाने को जी करता है। इसीलिए तो आदमी आगे की सोचता है क्योंकि भोग के फूल हैं वहां पर। यदि उल्टा लौटकर जाकर देखे तो जड़ें हैं, ऊपर की तरफ हम भोग का चिन्तन करते हैं और जड़ों को भूल जाते हैं। जबकि शून्य में तो परमात्मा है।

Friday, December 5, 2008

सर्वात्मा, परमात्मा श्री कृष्ण की कृपा से हम जीवित हैं

भैया! वह सर्वात्मा, परमात्मा श्री कृष्ण , जिनकी कृपा से हम आज तक जीवित हैं और सम्राट बने हुए हैं, उन्हें हम सारी जिन्दगी भूलते रहे हैं। आज वो हमारे बीच में नहीं हैं। युधिष्ठिर बहुत रोए। भैया अभी भी समय है। हम अपने झूठे अहंकार को भूलकर जो सर्वात्मा, परमात्मा श्री कृष्ण हैं उनको स्मरण करें। देखो भैया, मैं तो समझता था कि मेरे गाण्डीव की शक्ति है, अर्जुन की शक्ति है, परन्तु प्रभु श्री कृष्ण के जाने के बाद जब मैं द्वारिका वासियों को लेकर वापस आ रहा था न, तो राह में इकट्ठा होकर भीलों ने मुझसे द्वारिका वासियों को छीन लिया, लूट लिया उन्हें। मेरा गाण्डीव लकड़ी का, मिट्टी का गाण्डीव बनकर रह गया, क्योंकि वह शक्ति जो नहीं रही थी जिससे विजय श्री मिलती थी। शक्ति शरीर की नहीं है, ड्डष्ण की है। शक्ति बु(ि की नहीं है, ड्डष्ण की है। जिससे शरीर चलता है, जिससे बि चलती है, वह शक्ति तो ड्डष्ण की है। लोग जड़ों को भूल जाते हैं, फूलों में अटक जाते हैं। फूल सुन्दर होते हैं तथा जड़ें कुरूप होती हैं। इसीलिए तो भगवान का स्मरण करने में कष्ट होता है। और जो संसार के भोग हैं, वे फूल हैं, उनके संग मर जाने को मिट जाने को जी करता है। इसीलिए तो आदमी आगे की सोचता है क्योंकि भोग के फूल हैं वहां पर। यदि उल्टा लौटकर ;त्मअमतेम जाकर देखे तो जड़ें हैं, वतपहपद है, तववजे हैं वहां। ऊपर की तरफ हम भोग का चिन्तन करते हैं और जड़ों को भूल जाते हैं। जबकि शून्य में तो परमात्मा है।

Thursday, December 4, 2008

दुराचरण हमारे जीवन के भीतर कालिमा भरता है

फिर तभी महात्मा अर्जुन भी भगवान श्री ड्डष्ण के धाम द्वारिका नगरी से लौट कर आए। युधिष्ठिर ने जब उन्हें देखा तो बोले, "अर्जुन, तुमने अवश्य कुछ पाप कर्म किया है। कुछ ऐसा किया है जो तुम्हें नहीं करना चाहिए था। कोई न कोई शास्त्र, लोक तथा समाज के विरुद्ध दुराचरण किया है। ऐसा तुम्हारा बुझा हुआ चेहरा बताता है। अर्जुन बोले, "नहीं भैया, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जैसा आप सोच रहे हैं, और न मैं कभी कर सकता हूं। हां, एक दुराचरण जो हमारे जीवन के भीतर कालिमा भरता है तथा भरने के बाद हमारे चेहरे में कालिमा पोत देता है वह एक ही है।

Monday, December 1, 2008

कुन्ती और गांधरी दोनों जल कर भस्म हो गए।

शौनक! बहुत समय हो गया एक बार अर्जन भगवान श्री कृष्ण के पास से लौटकर नहीं आए। पाण्डवों को अपशकुन हुए। उस समय उनको महात्मा विदुर भी मिल गए। विदुरजी ने युधिष्ठिर और गांधारी को योग, ज्ञान और भक्ति का उपदेश करके रात में ही भगा दिया। उन्होंने हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर योगाभ्यास के द्वारा परमपद को प्राप्त किया। वहीं जंगल की आग में कुन्ती और गांधरी दोनों जल कर भस्म हो गए। सुबह जब पांडव जागे तो न धृतराष्ट्र मिले न विदुर न गांधरी और न कुन्ती, तो वे बहुत रोए। उस समय देवर्षि नारद ने आकर युधिष्ठिर को धर्म का उपदेश कर, समझा बुझा कर शांत किया।